Nehru vs Modi vs Cihna
लद्दाख क्षेत्र में भारत और चीन के बीच हिंसक टकराव को लेकर भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से बुलाई गई सर्वेदलीय बैठक में प्रधानमंत्री ने विपक्ष और देश को आश्वस्त किया है कि भारत की किसी भी चौकी पर चीन ने कब्जा नहीं किया और LAC पर हमारी पेट्रोलियम क्षमता बढ़ी है प्रधानमंत्री मोदी ने देश को यह भरोसा भी दिलाया है कि कोई भी हमारी ओर आंख उठाकर भी नहीं देख सकता |
प्रधानमंत्री मोदी ने यह भरोसा भी दिया है कि गलवान घाटी में जो हुआ उसे लेकर भारत ने चीन को अपना सख्त विरोध सभी माध्यमों से जता दिया पीएम नरेंद्र मोदी का यह बयान इस बात का संकेत है कि गलवान घाटी में चीनी सेना के हाथों 20 भारतीय सैनिकों की शहादत और 10 सैनिकों को बंधक बनाए जाने की घटना के बावजूद भारत चीन के साथ टकराव बढ़ता और रिश्ते बिगड़ना नहीं चाहता |
भारत क्षेत्रीय शांति भंग करने के पक्ष में नहीं है लेकिन उसकी इस भावना को उसकी कमजोरी ना माना जाए इसलिए प्रधानमंत्री मोदी ने अभी कहा कि भारत अपनी सीमाओं की रक्षा करने में सक्षम है भारत के इस रुख को चीन किस तरह लेता है यह भविष्य बताएगा भारत चीन सीमा पर चीनी सैनिकों का व्यवहार इसका संकेत होगा कि चीन भारत की शांतिप्रियता को उसकी कमजोरी समझता है या जो हुआ उसे भूलकर अपनी तरफ से फिर कोई उकसाने वाली कार्रवाई न करके भारत की भावना का सम्मान करेगा
सवाल उठता है कि पठानकोट के बाद उरी सर्जिकल स्ट्राइक और पुलवामा के बाद बालाकोट एयर स्ट्राइक के जरिए दो-दो बार पाकिस्तान को सबक सिखाने वाले नरेंद्र मोदी चीन की गलवान हरकत पर इतनी सधी हुई प्रतिक्रिया क्यों करते हैं ?
इसका जवाब भारत पाकिस्तान और भारत चीन के रिश्तो का और परिस्थितियों का विश्लेषण में मिलेगा और उससे प्रधानमंत्री मोदी की प्रतिक्रिया का अर्थ और कारण समझ में आएगा
दरअसल चीन के साथ रिश्तों को लेकर नेहरू हो या नरेंद्र मोदी दोनों सरकारों की एक ही कहानी है और अंजाम भी करीब-२ वही चीनी धोखा रहा है
कहते हैं कि इतिहास अपने को दोहराता है लेकिन कुछ बदलाव के साथ चीन के साथ भारत के रिश्तों में यही हो रहा है नेहरू ने माओ चाऊ के साथ दोस्ती की पींगे बढाई तो नरेंद्र मोदी ने शी जिनपिंग को अहमदाबाद में झूला झुलाया और वुहान से लेकर महाबलीपुरम तक दोनों साथ साथ घूमे
दोनों ही प्रधानमंत्रियो नेहरू और मोदी की अमेरिका से बढ़ती नजदीकी चीन को नागवार गुजरी और अमेरिका की जब जरूरत थी तब शांत हो गया
नेहरू अगर तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जान ऍफ़ कनेडी की दोस्ती से निहाल थे तो नरेंद्र मोदी को अपने दोस्त अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पर भरोसा है लेकिन न तब अमेरिका भारत के लिए आगे आया और न अब ही |
रूस जो नेहरू के समय सोवियत संघ था यह कहकर शांत हो गया कि भारत हमारा दोस्त है और चीन हमारा पड़ोसी और उसके साथ दोनों देशों में कम्युनिस्ट की सरकार है और इस बार भी रूस खामोश है और इसने भी अमेरिका जैसी ही प्रतिक्रिया की है कि हम इस पर नजर रखे हुए हैं तब भी भारत में चीन का मुकाबला अपने दम पर किया था भले ही हमे पराजित होना पड़ा था और अभी भी |
भारत को चीन से जो कुछ पाना है अपने दम पर ही पाना है अब थोड़ा और गहराई में चलते हैं 1947 में आजादी से पहले भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व करने वाले कांग्रेस पार्टी और चीनी क्रांति के लिए लड़ रही चीनी क्म्युनिट्स पार्टी के बीच अंतरदलीय संबंध बेहद मजबूत हो गए थे
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों से ही जवाहरलाल नेहरू और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के दूसरे वरिष्ठ नेता चाऊ एन लाई के बीच दोस्ताना रिश्ते हो गए थे माओ की अगवाई में जब चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में उसकी पीपल सेलिब्रेशन आर्मी (PLA ) जापानी सेना से मुक्ति संग्राम लड़ रही थी तब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने डॉक्टर द्वारिका नाथ कोटनीस के नेतृत्व में डॉक्टरों की एक टीम उनकी चिकित्सा सहायता के लिए भेजा था और उस लड़ाई में घायल चीनी सैनिकों का इलाज करते-करते डॉक्टर कोटनीस की मृत्यु चीन में ही हो गई थी
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के इन दोस्ताना रिश्तो की पृष्टभूमि में ही आजाद लोकतांत्रिक भारत और मुक्त साम्यवादी चीन के बीच पंचशील और हिंदी चीनी भाई-भाई का सुनहरा समय शुरू हुआ
चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया भारत ने दलाई लामा को राजनीतिक शरण दे दी लेकिन दोनों देशों के रिश्ते आगे बढ़ते रहे आजाद भारत के स्वप्रदर्शी प्रधानमंत्री नेहरू दूसरे विश्व युद्ध के बाद दो ध्रुवो में बट चुकी दुनिया के बीच में एक नया और तीसरा ध्रुव बनाने में जुटे थे
जिसके सदस्य देश सोवियत संघ और अमेरिका के नेतृत्व वाले दोनों गुटों में से किसी के साथ संबंध ना हो और दोनों के साथ समान दूरी और व्यवहार करते हुए अपने विकास का रास्ता स्वयं तय करें नेहरू निर्गुट देश के सम्मेलन के जरिए विश्व राजनीति में अपनी अलग छवि बना रहे थे और चीन भारत की दोस्ती भी परवान चढ़ा रहे थे
दोस्ती के इसी दौर में दोनों देशों के बीच सीमा रेखा को लेकर विवाद भी शुरू हुआ भारत का जोर अंग्रेजों के द्वारा खींची गई मैकमोहन रेखा को भारत चीन के बीच अंतरराष्ट्रीय सीमा माने जाने पर था जबकि चीन का तर्क था कि वह ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के द्वारा खींची गई मैकमोहन रेखा को नहीं मानता |
उसका दावा लद्दाख क्षेत्र में हजारों किलोमीटर के उसे इलाके पर था जो भारत के पास था दरअसल तिब्बत पर चीन के कब्जे से पहले भारत और चीन के बीच तिब्बत एक बफर देश था लेकिन तिब्बत पर कब्जा करके चीन ने अपनी सीमा भारत तक बढ़ा ली है प्राचीन काल से ही तिब्बत को अपना हिस्सा मानता था इसलिए चीन ने भारतीय सीमा की लंबे चौड़े इलाके पर अपना दावा किया लेकिन भारत ने इसे मानने से इनकार कर दिया चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाइ की भारत यात्राओं से भी कोई हल नहीं निकला
चाऊ एन लाई ने नेहरू को जो प्रस्ताव दिए उन्हें नेहरू ने नहीं माना उधर सोवियत संघ आज का रूस में जोसेफ स्टालिन की मृत्यु के बाद सत्ता निकिता खुश्रेव के हाथों में आ गए और उनके साथ चीन की सर्वोच्च नेता माओ त्से तुंग के गंभीर वैचारिक मतभेद हो गए और जो जल्द ही चीन और उसके बीच तनाव में बदल गए
इसी समय में अमेरिका में सत्ता बदली और डेमोक्रेट जान ऍफ़ कनेडी राष्ट्रपति चुने गए और उनकी भारत नीति ने अमेरिका और भारत को काफी करीब ला दिया नेहरू को अमेरिका की बातों और चीन की दोस्ती पर पूरा भरोसा था लेकिन दिसंबर 1962 में नेहरू की यह दोनों भरोसे टूट गए जब चीन ने भारत पर हमला कर दिया और अमेरिका सात समुंदर पार तमाशा देखता रहा और आगे की कहानी जग जाहिर ही है युद्ध में भारत की शर्मनाक हार हुई और चीन भारत के 38000 वर्ग किलोमीटर से भी ज्यादा इलाके को अपने कब्जे में कर लिया
इसके बाद भारत और चीन के रिश्तों में दुश्मनी का दौर शुरू हुआ नेहरू के बाद भारत की लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी की सरकारों ने चीन पर भरोसा नहीं किया और दोनों देशों के बीच तनाव और कड़वाहट बढ़ती रही
1976 में माओ की मृत्यु के बाद चीन में जबरदस्त सत्ता संघर्ष के बाद 1980 में तंग श्याओ फंग और समर्थक गुट ने चीन की सत्ता पर अधिकार किया माओ के कट्टर साम्यवादी विचारों के विपरीत तंग व्यवहारवादी राजनेता थे तंग फंग के शुरू किए गए चीन के चार आधुनिकरण कार्यक्रमो को पूरा करने के लिए चीन को क्षेत्रीय शांति और एशिया के विस्तृत बाजार की जरूरत थी जो बिना भारत के साथ रिश्ते सुधारे संभव नहीं था
इधर भारत में भी इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी भारी बहुमत से प्रधानमंत्री बने थे और यह कुछ अलग करने के इरादे से आगे बढ़े इसी पृष्ठभूमि में भारत और चीन के दोस्ताना रिश्तों की नई इबारत लिखी गई राजीव गांधी के ऐतिहासिक चीनी यात्रा से दोनों देशों के बीच दशको से जमी बर्फ पिघली और दुनिया ये तस्वीर बड़े चाव से देखी
जब युवा राजीव गांधी का हाथ अपने हाथ में लेकर बुजुर्ग तंग फंग कई मिनटों तक मिलाते रहे राजीव गाँधी और तंग फंग के बीच बनी सहमति के साथ ही दोनों देशों ने आर्थिक , सामाजिक, सांस्कृतिक और कूटनीतिक संबंधों में तेजी से सुधार लाना शुरू कर दिया
राजीव गांधी के बाद नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेई और मनमोहन सिंह की सरकारों ने दोस्ताना रिश्तों की इस प्रक्रिया को और तेज किया भारतीय प्रधानमंत्री की चीन यात्राओं और चीनी नेताओं की भारत यात्रा से कई समझौते हुए जिसे भारत में चीनी निवेश और व्यापार का रास्ता खुला दोनों देशों के बीच तय हो चुका था की सीमा विवाद को लेकर बातचीत के दौर चलते रहेंगे लेकिन इससे भारत चीन के आर्थिक, सामाजिक और कूटनीतिक रिश्तों पर असर नहीं पड़ेगा और इन क्षेत्रों में दोनों देश आगे बढ़ते रहेंगे चीन की तरक्की से भारत और भारतीय जानकार होने लगे और धीरे-धीरे भारत के बाजार ,उद्योग, व्यापार, वाणिज्य , तकनीकी हर क्षेत्र में चीन और चीनी सामान छा गया
अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी कुछ मुद्दों पर मतभेद की बावजूद दोनों देशों का सहयोग बढ़ने लगा चीन की तरक्की से भारत के वामपंथी और कांग्रेसी ही नहीं दक्षिणपंथी भाजपा और RSS के नेता भी प्रभावित होने लगे
गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए मोदी ने चीन की कई बार यात्रा की और भारत को भी चीन की तरक्की और उसके मॉडल से सीखने की बात बार-बार की गई प्रधानमंत्री बनते ही नरेंद्र मोदी ने अपने शपथ समारोह में जहां सार्क देशों (SAARC ) के राष्ट्र अध्यक्षों को बुलाया तो उसके तुरंत बाद सबसे पहले चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग का भारत में दिल खोलकर स्वागत किया
अहमदाबाद के साबरमती रिवर फ्रंट में झूले पर बैठे मोदी और शी जिनपिंग की तस्वीर इस तरह दुनिया ने प्रमुखता से देखी जैसे कभी राजीव गांधी और तंग फंग की हाथ मिलाने की तस्वीर देखी गई थी नरेंद्र मोदी के पहले कार्यकाल में भारत चीन की दोस्ती इस कदर परवान चढ़ी की दोनों देशों के बीच 2020 तक करीब 87 अरब डॉलर का व्यापार हो गया
डोकलाम में दोनों देश एक बार आमने-सामने हुए लेकिन मोदी और शी जिनपिंग ने कूटनीतिक स्तर पर इसे सुलझा लिया और मामला शांत हो गया इसके बाद वुहान और महाबलीपुरम में दोनों नेताओं के अनौपचारिक बिना एजेंडे की मुलाकातों ने भारत चीन के बीच दोस्ती के मजबूती का आभार दुनिया को दिया
शायद ये आभास ही था क्योंकि जब दोबारा ज्यादा बड़े बहुमत से नरेंद्र मोदी सरकार बनी तो 6 महीने के भीतर कई बड़े फैसले लिए जैसे जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 में बदलाव और राज्य के पुनर्गठन का फैसला भी था जिसके तहत लद्दाख और जम्मू कश्मीर को अलग-अलग केंद्र शासित क्षेत्र बना दिया गया संसद में जब यह विधेयक पारित हो रहा था तो गृह मंत्री अमित शाह ने PAK अधिकृत कश्मीर और चीन के कब्जे वाले अक्शाई क्षेत्र पर भारत के दावे को दोहराया जिसका पूरा सदन ने समर्थन किया और तब से ही चीन को भारत का फैसला अच्छा नहीं लगा
तब से ही चीन के व्यवहार में बदलाव आ गया चीन ने पाकिस्तान के साथ मिलकर चीन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और अन्य वैश्विक मंच पर भारत के इस कदम का विरोध किया जबकि भारत ने कहा कि उसका फैसला आंतरिक मामला और पूरी दुनिया ने भारत के इस बात का समर्थन किया
घबराए चीन भारत को घेरना शुरू कर दिया एक तरफ उसने लद्दाख से लेकर अरुणाचल तक सीमाओं पर भारी सैनिकों को तैनात किया तो दूसरी तरफ नेपाल को भारत के खिलाफ उकसाकर लिपुलेख और कालापानी का विवाद शुरू कर दिया
जनवरी से ही लद्दाख क्षेत्र में चीनी सेना भारतीय सीमा पर अपनी गतिविधियों को बढ़ानी शुरू कर दिया और मई तक उसने विवादित क्षेत्रो में न सिर्फ कई पक्के निर्माण कर लिए बल्कि गलवा नदी व घाटी में उन विन्दुयो पर बैठ गई जहा भारतीय सेना के जवान पहरेदारी किया करते थे और जिन पर कोई निर्माण नहीं था
इसके बाद 15 - 16 जून की रात को वि हिंसक मुठभेड़ हुई जिसमे भारतीय सेना के 20 जवान शहीद हो गए और करीब 10 को चीनी सेना ने पकड रखा था और जिन्हें बाद में छोड़ा गया अब गलवा घाटी को लेकर भर चीन आमने सामने है मोदी बार बार कह रहे है की भारत की एक इंच जमीन भी किसी के कब्जे में नहीं है और न ही भर की किसी चौकी पर किसी का कब्जा है प्रधानमंत्री के बयान पर विपक्ष ने जब सवाल उथया की अगर भारत की जमीन पर चीनी सैनिक नहीं घुसे तो भारतीय सैनिक क्या चीन की सीमा मे शहीद हुए ?
इसका जवाब PM कार्यालय ने यह कहकर दिया की चीनी सैनिको ने भारतीय सीमा में अतिक्रमण की कोशिश की लेकिन भारतीय सैनिको ने उन्हें रोक दिया चीनी सैनिको की बर्बरता को लेकर भारत में चीनी सामानों के बहिष्कार की बाते की जा रही है सरकार पर भी दबाव है की वह चीन को इस हिमाकत का सबक सिखाये सेना और देश का मनोबल बना रहे ये दबाव इसलिए भी है की मोदी सरकाल के पहले कार्यकाल में पठानकोट और पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले का भारतीय सेना ने उरी और बालाकोट में सर्जिकल स्ट्राइक के जरिये pak को जवाब दिया था
इसके कारण से देश के लोगों में यह भावना पैदा कर दिया गया है कि अब चीन को भी कुछ ऐसा ही सबक सिखाया जाना चाहिए लेकिन पाकिस्तान में भारत ने आतंकवादियों को तबाह किया था जबकि इस बार चीन की सेना से सीधे भिड़त हुई है और उनकी उरी या बालाकोट जैसी कार्रवाई का मतलब सीधा युद्ध है जिसके लिए शायद अभी देश तैयार नहीं है
इसी प्रकार भारतीय अर्थव्यवस्था बाजार में जिस हद तक चीन की हिस्सेदारी बढ़ी हुई है उसकी वजह से भी चीन के साथ युद्ध लेना वह भी तब जब कोरोना की वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए समय और सहारे की जरूरत है न तार्किक और न ही दूरगामी देशहित में है साथ ही भारत अपनी तरफ से युद्ध जैसी स्थिति पैदा करके अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि आक्रांत जैसी नहीं बनाना चाहता यही कारण है की मोदी सरकार अपनी छवि के विपरीत लद्दाख मुद्दे पर बेहद संतुलित और संयमित रूप अपनाए हुए है
भारत इस मुद्दे को ज्यादा तूल न देकर संघर्ष और टकराव को टालना चाहता है साथ ही भारत ने चीन से भी यह भी कहा कि गलवा घाटी भारत का था और वह भारत का ही रहेगा अब यह चीन पर निर्भर है कि वह भारत के इस रुख पर क्या और कैसा जवाब देता है |
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