गुरु और शिष्य की महानता

 



गुरु और शिष्य की महानता 

भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य परम्परा के अन्तर्गत गुरु अपने शिष्य को शिक्षा देता है या कोई विद्या सिखाता है बाद में वही शिष्य गुरु के रूप में दूसरों को शिक्षा देता है यही क्रम आगे भी चलता जाता है जो  परम्परा सनातन धर्म की सभी स्थानों में मिलती है जो किसी भी क्षेत्र में हो सकता है  जैसे- अध्यात्म, संगीत, कला, वेदाध्ययन, वास्तु जैसे क्षेत्रो में भारतीय संस्कृति में गुरु शब्द और इनके कार्यो का बहुत अधिक महत्व है कहीं गुरु को 'ब्रह्मा-विष्णु-महेश' तो कहीं 'गोविन्द' की संज्ञा दी गई  'सिख' शब्द संस्कृत के 'शिष्य' से बना  है।

जैसे 'गु' शब्द का अर्थ होता है अंधकार (अज्ञान) और 'रु' शब्द का अर्थ होता है प्रकाश ( ज्ञान) | अर्थात अज्ञान को नष्ट करने वाला जो ब्रह्म रूपी  प्रकाश है, वही असली  गुरु है |

इसी तरह भगवतगीता में भगवान श्रीकृष्ण जी ने गुरु-शिष्य परम्परा को ‘परम्परा प्राप्तम योग’ बताया है जो सांसारिक ज्ञान से शुरू होकर  अपने जीवन के अंतिम लक्ष्य आध्यात्मिक शाश्वत आनंद की प्राप्ति से होता है, जिसे हम साधारण भाषा में ईश्वर की प्राप्ति या  मोक्ष की प्राप्ति भी कहा जाता है बड़े भाग्य से मिले इस मानव जीवन का यही अंतिम व सर्वोच्च लक्ष्य होना चाहिए 

जैसे कहा जाता है कि गुरु एक मशाल की तरह है और शिष्य उस मशाल में जलने वाली और निकलने वाली  प्रकाश की तरह है जो अपने ज्ञान से पूरी दुनिया भर में अपने समाज का नाम रोशन करता है 



आपको जानकारी होनी ही चाहिए की प्राचीन भारत के गुरुकुलों में  कुल 3  प्रकार की शिक्षा संस्थाएँ हुआ करती थी -

1.गुरुकुल- जहाँ आश्रम में गुरु के साथ शिष्य रहकर  विद्या का अध्ययन किया करते थे 

2.परिषद- जहाँ अलग अलग विषयों के विशेषज्ञ द्वारा शिष्यों को शिक्षा  प्रदान की जाती थी

3. तपस्थली- समय समय पर जब बड़े बड़े सम्मेलन का आयोजन किया जाता था और इसी प्रकार आपस में वाद विवाद कराकर और प्रवचनों के द्वारा ज्ञान दिया जाता था जैसे आपने नैमिषारण्य का नाम सुना होगा जो इसी प्रकार का एक  स्थान हुआ करता था  

गुरुकुल के माध्यमो से लाखो शिष्य सदियों तक विद्या का अध्ययन करते रहे और भारत देश के इन गुरुकुल आश्रमों के आचार्यों को उपाध्याय और प्रधान आचार्य को 'कुलपति' या महोपाध्याय कहा जाता था जैसे रामायण काल में ऋषि वशिष्ठ का बृहद् आश्रम था जहाँ राजा दिलीप तपश्चर्या करने गये थे, जहाँ विश्वामित्र को ब्रह्मत्व प्राप्त हुआ था इस प्रकार का एक और प्रसिद्ध आश्रम प्रयाग में भारद्वाज मुनि का था

गुरुकुल मे बच्चे दिनचर्या के सभी कार्य करते थे  जैसे अपने उपयोग की जाने वाली सभी प्रकार की सामग्री का निर्माण खुद ही किया  करते थे खाने के लिए  खेती करना या जाकर भिक्षा मांगना ये सभी अपने ही किया करते थे 




गुरुकुल मे श्रुति अर्थात सुन सुन कर याद करते थे क्योकि उस समय लिखने की कला विकसित नहीं  हुई थी 

ये बड़ी दुःख की बात है  कि आजादी से पहले  भारत में हमारी भाषा, शिक्षा और संस्कृति उतनी ख़राब अवस्था में नहीं थी जितनी आजादी के बाद से हो गई है भारतीय ऋषियों के अनुसार, जिस व्यक्ति की आत्मा से दूसरी आत्मा में शक्ति का संचार हो जाये  वह गुरु कहलाता है। इसके लिए देने वाले में शक्ति और लेने वाले में ग्रहण करने की योग्यता होनी चाहिए तभी गुरु और शिष्य की महिमा बनी रहती है  |





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