Inidan Higher Education vs indian Government ( भारतीय उच्च शिक्षा बनाम भारत सरकार )

 

Inidan Higher Education vs indian government ( भारतीय उच्च शिक्षा बनाम भारत सरकार )

भारत के उच्च शिक्षा संस्थानों की रैंकिंग पर हमेशा से ही सवाल उठते रहे हैं और यह इसलिए कोई नहीं बात नहीं है लेकिन हां हर बार जरूर कुछ नए प्रश्न उठते है |

आप सभी को जानकर हैरानी जरूर होगी कि उत्तर प्रदेश और बिहार के कस्बों के कॉलेज में स्नातक विषयों में एडमिशन के लिए अभियान चलाना पड़ता है जबकि JNU  में एक सीट के लिए करीब 36 बच्चों के बीच कंपटीशन रहता है IIM अहमदाबाद में एडमिशन के लिए एंट्रेंस एग्जाम में 99% अंक के साथ हाई स्कूल में इंटरमीडिएट का रिकॉर्ड भी देखा जाता है

 लेकिन देश के अन्य संस्थानों में बगैर पात्रता परीक्षण के ही प्रबंधन यानी मैनेजमेंट की डिग्रियां मिल रही है ये  उदाहरण इस तथ्य को समझने के लिए एक छोटा सा उदाहरण है कि अपने ही देश में अपने ही लोगों के लिए किस तरह दो प्रकार की नीतियों का निर्माण हमने पिछले 70 वर्षों से कर रखा

BHU ,JNU, जामिया मिल्लिया. जाधवपुर , हैदराबाद मणिपाल और कोलकाता विश्वविद्यालय , मिरांडा हाउस,  लेडी श्रीराम ,सेंट स्टीफन , हिंदू कालेज , हंसराज और प्रेसीडेंसी जैसे कॉलेज में एक ही समानता है कि यह संस्थान दिल्ली चेन्नई और कोलकाता जैसे महानगरों में बने हुए हैं और आम नागरिक इन्हें एलिट अर्थात अभिजन के रूप में मानता है |
लगभग इसी तरह से IIT , IIM  और राष्ट्रीय महत्त्व  के अन्य उच्च शिक्षा संस्थानों का भी एक एलीट  परकोटा कायम हो गया है मानव संसाधन विकास मंत्रालय के तत्वाधान में जारी संस्थाओं की ताजा रैंकिंग में मध्य प्रदेश , उत्तर प्रदेश,  बिहार ,राजस्थान,   छत्तीसगढ़, उड़ीसा, हरियाणा और झारखंड जैसे राज्यों का एक भी उच्च शिक्षा संस्थान शामिल नहीं है 
एक संयोग  ही है कि केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित सभी संस्थान अपनी गुणवत्ता और नवाचार के प्रतिमान स्थापित कर इस रैंकिंग में हर वर्ष प्रतिस्पर्धा करते हैं और यह सच भी है कि जब यही आंकड़ा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जारी किया जाता है तो हमारे यही संस्थान प्रथम 200 में भी नहीं आते हैं |

इस ताजा रैंकिंग के नतीजे कुछ साधारण सवाल भी खड़े करते हैं कि क्या भारत में उच्च शिक्षा के मौजूदा ढांचे में एक नया वर्ग खड़ा कर दिया गया है ?  जिसमें आम  गरीब एवं निम्न मध्यमवर्गीय स्तर के लिए कोई जगह नहीं है 
केंद्र की सरकारे  कुछ संस्थाओं को चमका कर उच्च शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण मामले  से अपनी भूमिका को चतुराई से समेटती  रही है वर्ष 1976 में शिक्षा के समवर्ती सूची में आते ही राज्यों ने भी उच्च शिक्षा से अपने हाथ पीछे खींच लिए  

 यह यहां पर कुछ आंकड़े हैं जिन पर आप सभी ध्यान दे जैसे देशभर में 16 IIT  कॉलेज में 12362 सीट , IIM  में 13265 सीट ,  BHU  में 12000 सीट , दिल्ली यूनिवर्सिटी में 62000 सीट ,  JNU में करीब 2600 सीट  मिलाकर  सभी टॉप रैंकिंग  वाले  संस्थान की उपलब्ध सीटों को जोड़ दिया जाए तो यह आंकड़ा 3 लाख के आसपास जाएगा जबकि देश में उच्च शिक्षण संस्थान में एडमिशन कराने  वाले छात्रों की संख्या करीब 4 करोड़ है 
अर्थात जिस  चमकदार भारत की चर्चा होती है उसकी अनुपात को नामांकित आंकड़ों का 10% भी नहीं है भारतीय प्रधानमंत्री का एक नारा है सबका साथ सबका विकास और टीम इंडिया की बात होती है लेकिन मौजूदा सरकार के 6 साल में यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन (UGC)  के फंडिंग पैटर्न में बदलाव नहीं आया है यह अपने बजट का 65% केंद्रीय और 35% राज्यों के विश्वविद्यालय पर खर्च करता है |

देश के कुल 993 विश्वविद्यालय में से केवल 49 ही केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं और 412 राज्यों के विश्वविद्यालय 356 निजी और शेष डीम्ड यूनिवर्सिटी की सूची में शामिल है सवाल फिर उसी भेदभाव नीयत  का है कि जो राज्य और केंद्र के बीच नागरिकों को बाटती  है यह भी तथ्य  है  कि राज्य अपने नागरिकों को नकली अस्मिता के जाल में फंसाते रहे हैं 
राज्यों के राजकीय  व्यवस्था उच्च शिक्षा के मामले में पूरी तरह फेल रही है लेकिन सवाल यह भी है कि क्या कुछ केंद्रीय संस्थानों के जरिए आत्मनिर्भर भारत और स्किल इंडिया और जैसे महत्वकांक्षी मिशन पूरे किए जा सकेंगे  ?

 देश के 39931 कालेजो में पढने वाले करीब  4 करोड़ बच्चो को हुनरमंद या शोध प्रवीण बनाये विना भारत की स्थिति  प्रेरक नहीं बनाई जा सकती है
 रिसर्च फार्म नैसकाम और मैकेंजी का कहना है  की भारत के 10 मानविकी स्नातको  में से मात्र 1 ही रोजगार योग्य  होता है एसोमैच के एक अध्ययन  में बताया गया की करीब 1500 नए  विश्वविद्यालय शुरू करने की भी आवश्यकता है क्योकि अमेरिका  और चीन के बाद भारत तीसरा बड़ा उच्च शिक्षा देने वाल सेक्टर है 
भारतीय RBI  के अनुसार प्रतिवर्ष 43000 करोड़ रुपये खर्च कर हमारे युवा विदेशो  में जाकर डिग्रिया हासिल करते है वर्ष 2024 तक ऐसे छात्रों की संख्या  4 लाख और खर्च दोगुना होने का अनुमान है जाहिर है जितना धन हम देश भर में उच्च शिक्षा पर खर्च करते है उससे अधिक तो विदेशो में हमारे धनी  परिवार गँवा देते है |

भारतीय बजट 2020 के अनुसार देश के पूरे बजट का 99300 करोड रुपए शिक्षाओं के लिए खर्च किया गया और इसमें से हायर एजुकेशन के लिए 39466 करोड़ वह स्कूली शिक्षा के लिए 59845 करोड रुपए होगा अर्थात देश में ही दो वर्गों के बच्चे उच्च शिक्षा हासिल कर रहे हैं पहले वर्ग में वे लोग हैं जिन्हें सरकार सामाजिक न्याय के बहाने पढ़ना चाहती है और दूसरा वर्ग वह जो  महंगे विदेशी संस्थाओं का खर्च वहन  कर पाने  में सक्षम है 
अगर देखा जाए तो विदशो में पढ़ने वाले भारतीय छात्रों की संख्या देश में पढ़ने वाले कुल छात्रों की संख्या का 1% भी नहीं है स्वयं केंद्र सरकार का भी मानना है कि वर्ष 2030 तक कॉलेज में 30 करोड़ एडमिशन होगा ऐसी स्थिति में हमारी बुनियादी संरचना क्या इस भार  को सहन कर पाएगी ? 

सरकार की रैंकिंग में भले ही केंद्रीय संस्थाओं का दबदबा हो लेकिन जमीनी सच्चाई बहुत ही अच्छी नहीं है  केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय डॉ रमेश पोखरियाल ने बीते लोकसभा सत्र में स्वीकार किया था कि केंद्रीय विश्वविद्यालय में स्वीकृत 18243 शिक्षकीय पदों में से 6688 और गैर शैक्षणिक के 34928 पदों में से 12323 पद आज भी खाली पड़े है 
 इसी प्रकार राज्यों के विश्वविद्यालय में औसतन 45% शिक्षकीय  पदों पर कोई भी टीचर नहीं है कुलपतियों के पद राज्य सरकारों के रहमों करम पर निर्भर करता है  सरकार बदलते ही राज्यों में कुल कुलपतियों की इस्तीफे  शुरू हो जाते हैं राजनीति और अफसरशाही की जकड़न में फंसे राज्यों के विश्वविद्यालय ठोस परिणाम की कार्ययोजना और दृढ इच्छा शक्ति के बगैर पटरी पर नहीं आ सकते हैं जब तक राज्यों के विश्वविद्यालय उन्नत और गुणवत्तापूर्ण नहीं होंगे  |
उच्च शिक्षा का मौजूदा  भेषजनक चरित्र भारत में एक तरह  के वर्गीय  अलगाव को बढाता रहेगा राष्ट्रीय प्रयायन  एवं मूल्यांकन परिषद के अनुसार 65% विश्वविद्यालय और 80% कॉलेज इसके मानदंड पर खरे नहीं उतरते हैं 
जाहिर है कि सबका साथ सबका विकास तभी सार्थक होगा जब उच्च शिक्षा का एक समावेशी ढाचा देश के अंदर आम सहमति से विकसित किया जाये  कब खुलेगी सरकार की आंख ?

 ऐसे क्यों हुआ है ? 
हाल ही में देश भर के विश्वविद्यालय में चल रहे हैं शोध कार्यों की समीक्षा में करीब 80% शोधकार्यो को जन उपयोगी नहीं पाया गया शोध की असलियत क्या व्यक्त करता है है ?
 देश के लगभग सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयो  में विभिन्न विषयों पर अनेक शोध कार्य कराए जा रहे हैं जिसके लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ( UGC )  जैसी संस्थाएं प्रति वर्ष लाखों रुपए अनुदान देती है ताकि देश में जनउपयोगी  शोध के निष्कर्ष सामने आ सके 
लेकिन स्थिति ठीक इसके विपरीत शिक्षा हमारा मौलिक अधिकार है और संविधान द्वारा प्रदान अन्य अधिकारों में सबसे महत्वपूर्ण भी है किसी भी देश की आधारशिला शिक्षा के मजबूत स्तंभों पर टिकी होती है और यही उसके सर्वांगीण विकास के मूल है गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा प्रत्येक विकसित राष्ट्र की परिकल्पना है  इसे हासिल किए बगैर न तो  वह सार्वभौमिक रूप से विकास के मानदंडो पर खरा उतर सकता है और ना ही वैश्विक शक्ति बनने की दिशा में आगे बढ़ सकता है विडंबना यह है कि विकास की धुरी रही थी शिक्षा आज देश में सबसे ज्यादा अपेक्षित है भारत देश आज उच्च शैक्षणिक संस्थाओं और प्राध्यापकों की भारी कमी झेल रहा है |

शिक्षा और शैक्षिक व्यवस्थाये  पर भारी संकट है नए शोध संस्थानों और शोध के नए क्षेत्रों में अनुसंधान लगभग बंद है ऐसी स्थिति में शोध के नए आयामों  का लगातार गिरता स्तर सोचने पर बाध्य करता है
 आज यह  किसी से छिपा नहीं है कि हमारे अधिकांश उच्च  शिक्षण संस्थानों में पुराने और घिसे पिटे विषयों पर शोध कार्य कराया जाता है जिसमें ना तो शोध करने वाला कोई विशेष रूचि लेता है और न ही शोध टीचर |
इसी कारण से ऑस्ट्रेलिया ,अमेरिका , कनाडा ,न्यूजीलैंड,  ब्रिटेन जैसे देशों में भारतीय छात्रों का तेजी से पलायन हो रहा है दुनिया की सबसे ज्यादा आबादी वाले देश में प्रतिभाएं गुणवत्तापूर्ण शोध निष्कर्ष दे पाने में असमर्थ हो तो यह हैरानी की बात है 
शिक्षा के उच्च संस्थानों की जर्जरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां के 70% से अधिक कॉलेज गुणवत्ता के मानकों पर फेल साबित हुए हैं एक तरफ शोध करने वाले छात्र शोध के नाम पर बड़ी-बड़ी छात्रवृत्ति प्राप्त कर रहे हैं तो दूसरी ओर  शोध के शिक्षक तय कार्यों की अन देखी  कर व्यक्तिगत कार्यों के लिए छात्रों का इस्तेमाल कर रहे है  
ऐसे शोधकार्यो  का क्या मतलब महत्व जो  मानव समाज के लिए और आर्थिक विकास में सहायक ना बन सके इससे केवल जनशक्ति ,समय और धन  की बर्बादी ही होती है अनुसंधान ऐसा हो जो आर्थिक रूप से मजबूती देने के साथ-साथ बहु आयामी और  जन उपयोगी भी हो हमें इस बारे में विचार करना होगा इसका एक सकारात्मक पहलू यह भी है कि देश को आत्मनिर्भर बनाने की राह में आगे ले जाने में इसका व्यापक योगदान होगा |


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