
भारत देश : " अगर नेहरु न होते तो " ....
देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की अभी हाल ही में 59 वी पुण्यतिथि मनाई गई है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर राहुल गांधी सहित कई नेताओं ने पंडित नेहरू को स्मरण कर उन्हें श्रद्धांजलि दी है
हालांकि भारत की राजनीतिक विरासत और नेहरू जैसे करिश्माई प्रधानमंत्री और स्वतंत्रता सेनानी किसी विस्मृति से परे हैं देश ने इन्हें कई अवसरों पर याद किया है और आगे भी याद करता रहेगा
इस इस लेख में हम बात करेंगे कि भारत जैसे देश में नेहरू की भूमिका और उनके राजनीतिक अस्तित्व की अनिवार्यता और एक लोकतांत्रिक देश में नेहरू जैसे नेता की क्या आवश्यकता होती है विस्तार से चर्चा किया जाएगा
जब 1961 में विख्यात लेखक एडल्स हक्सले भारत आए उस समय भारत में जनसंख्या बहुत ही अधिक हो गई थी आज की तरह ,बेरोजगारी और बढ़ती अशांति वाले हालात को देखकर उन्हें बहुत ज्यादा निराशा हुई
एडल्स हक्सले ने अपने भाई के नाम एक पत्र में लिखा " कि अगर नेहरू ना हो " तो सरकार को सैन्य तानाशाह बनने में देर नहीं लगेगी जैसा की तमाम नए बने राष्ट्रों में दिखने में आ रहा था जहां सेना ही सत्ता का सबसे व्यवस्थित और सर्वोच्च केंद्र बन गई
जरा इन शब्दों को बयां करने के भाव पर ध्यान दें तो बातें स्पष्ट होगी " अगर नेहरू ना हो तो " हक्सले की इस यात्रा के 3 वर्ष बाद ही नेहरू जी का निधन हो गया भारत में ना तो उस समय और ना ही उसके बाद कभी भी सैन्य शासन की नौबत आई
इस मामले में भारत की स्थिति एशिया और अफ्रीका , म्यांमार ,घाना , नाइजीरिया और इंडोनेशिया जैसे अन्य देशों से एकदम अलग रही है जहां के राजनीतिक जीवन में सेना ने सरकार से भी ज्यादा शासन किया है
दोनों देशों में पाए जाने वाले इस विरोधी समस्या को विश्वसनीय व्याख्या एल यूनिवर्सिटी से जुड़े राजनीतिक वैज्ञानिक स्टीव वैकेंसी ने नई किताब " आर्मी एंड नेशन " में मिलती है
इस किताब में भारत और पाकिस्तान की दिशाओं में अंतर की कई बड़ी-बड़ी वजहे गिनाते है
इसे हम लोग 4 बड़े पॉइंट में करके समझेगे :-
1. पहली बजह दोनों देशों की प्रमुख राजनीतिक दलों के सामाजिक आधार में निहित फर्क से जुडी है कांग्रेस को पूरे देश में किसानों और मध्यमवर्ग के एक बड़े वर्ग का समर्थन प्राप्त था इसलिए सोच समझकर इसकी प्रकृति संघीय रखी गई विभिन्न भाषायी और सांस्कृतिक समूहो को इसमें पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिला हुआ था
दूसरी तरफ मुस्लिम लीग की जिसका एक जातिगत आधार था इसमें बड़े जमींदार और वकील लोग शामिल थे पाकिस्तान सेना के सामने लीग कमजोर प्रतिद्वंदी साबित हुई मगर कांग्रेस इतनी ताकतवर थी और उसकी जड़े इतनी मजबूत और गहरी थी कि भारतीय सेना उसे कभी चुनौती देने की सोच भी नहीं सकता था
2.दूसरी वजह यह थी कि जहां पाकिस्तानी सेना में एक प्रांत का ही बोलबाला था वहीं भारत में ऐसा नहीं था दो विश्वयुद्धों के दौरान अंग्रेजों ने पंजाब से बड़ी मात्रा में सेनाओ की भर्तियां की थी
जब देश का विभाजन हुआ तो सेना भी बट गई हुआ यह कि पाकिस्तान सेना में 72% सैनिक पंजाबी मुसलमान थे भारत में भी सेना में पंजाबी सिखों और हिंदुओं की लगभग 20% हिस्सेदारी थी जो पाकिस्तान की तुलना में बहुत ही कम था
इसी समय भारत सरकार ने सेना में संतुलन बनाए रखने के लिए देश के उन हिस्सों से भी सैनिकों की भर्ती करना शुरू कर दिया जिन्हें परंपरागत तौर पर कम प्रतिनिधित्व मिला हुआ था
इसके साथ ही सेना का काम बांटने के लिए भारत में पैरा मिलिट्री यूनिट का भी गठन किया गया|
3. तीसरी वजह राजनीतिक नेतृत्व की ओर सेना को समय-समय पर दिए गए निर्देश थे जिसके जरिए सेना को उनकी अधीनता का लगातार एहसास कराया गया
विलिकिन्सन एक पत्र का उल्लेख करते हैं जो जवाहरलाल नेहरू ने अगस्त 1947 को ब्रिटिश कमांडर इन चीफ को लिखा था इसमें लिखा गया था कि" सेना या किसी दूसरे क्षेत्र से जुड़ी नीति में भारत सरकार के नजरिए का पालन होना चाहिए अगर सेना का कोई अधिकारी भारत सरकार द्वारा निर्धारित नीति का पालन करने में खुद को अक्षम पाता है तो भारतीय सेना में और सरकार के ढांचे में उसकी कोई जगह नहीं है " |
4. चौथी में आधिकारिक तौर पर सेना के स्तर में आने वाली प्रतीकात्मक गिरावट थी औपनिवेशिक शासन के समय कमांडर इन चीफ को भारत का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति माना जाता था उस समय नई दिल्ली में उसके घर से बड़ा घर केवल वायसराय का होता था बाद में अर्थात आजादी के बाद नेहरू जी इस घर में रहने लगे
स्वतंत्रता मिलने के बाद सेना प्रमुख को रक्षामंत्री के प्रति जवाबदेह बनाया गया रक्षा मंत्री संसद, प्रधानमंत्री और कैबिनेट के प्रति उत्तरदाई था इतना ही नहीं स्वतंत्र भारत के नए संविधान में अधिकारियों की सूची में सेना प्रमुख को 25 वां स्थान पर रखा गया जबकि पाकिस्तान में यह बहुत ही ऊपर स्थान दिया गया
कैबिनेट मंत्री , राज्यपाल , सर्वोच्च व उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की जगह सेना प्रमुख से भी ऊपर रखे गए
विलकिंग्सन इन चार प्रमुख वजहों में एक और बातें जोड़ी जा सकती हैं इतिहास और भूगोल से जुड़ी एक ऐसी दुर्घटना जिसकी बदौलत शीतयुद्ध काल में भारत की तुलना में पाकिस्तान ज्यादा महत्वपूर्ण देश बनकर उभरा
1980 के दशक में अफगानिस्तान पर USSR के कब्जे के खिलाफ लड़ाई में पाकिस्तान शामिल हो गया इस दौरान पाकिस्तानी सेना को अमेरिका से हथियारों और अरबो डॉलर की मदद मिलती रही और पाकिस्तान अपनी अर्थव्यवस्था और राजनीतिक स्तर पर अपनी ताकत बढ़ाता रहा पाकिस्तानी सेना के लगातार ताकतवर बनने की एक बड़ी वजह यह भी थी कि पाकिस्तान में हमेशा प्रतिभावान और महत्वाकांक्षी युवाओं के आकर्षण का केंद्र बनी रही राजनीतिक व्यवस्था और गतिमान अर्थव्यवस्था वाले भारत देश में एक मेधावी और महत्वाकांक्षी युवा कामयाब वकील, डॉक्टर , उद्यमी या राजनेता बनने लगे
समय के साथ साथ यह क्षेत्र युवाओं के लिए सेना से भी ज्यादा आकर्षण वाले बन गए आगे नतीजा यह हुआ की भारत में सेना में अधिकारियो के लिए होने वाले आवेदनों में कमी आती गई
वहीं पाकिस्तान में पैसा , प्रतिष्ठा और ताकत की इच्छा रखने वाली युवा के लिए आज भी सेना सबसे अच्छा विकल्प है हालांकि सेना पर सिविल कंट्रोल के नतीजे कभी घातक भी होते हैं जैसे कि स्वयं विलकिंग्सन ने पाया की सेना की तकनीकी जरूरत के प्रति नेहरू और उनके रक्षामंत्री वी के कृष्ण मेनन ने जो लापरवाही बरती इसका दुष्परिणाम चीन के साथ युद्ध में देखा गया
इसके बाद के रक्षा मंत्रियों ने सेना में सीनियर रैंक में पदोन्नति की प्रक्रिया में हस्तक्षेप करके उसकी क्षमता और मनोबल को कमजोर किया कुल मिलाकर हमें खुद को भाग्यशाली मानना चाहिए कि हमें उस स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा जिसका उल्लेख लगभग 60 वर्ष पहले हक्सले ने किया था.................
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