महाभारत के लेखन और संवाद पर विवाद क्यों ?
हिंदी भाषा कितनी सरल व सहज भाषा है इसका अंदाजा लोगों को दूरदर्शन पर रामायण और महाभारत देखने के दौरान हो जाता है आप सभी को अच्छे से याद भी होगा की कोरोना के कारण लॉकडाउन में बेहतरीन धारावाहिक प्रस्तुत करने के दूरदर्शन के प्रयासों के चलते रामायण और महाभारत के अलावा कई पुराने और लोकप्रिय रहे धारावाहिक फिर से प्रसारित किया गया था
जब भी रामायण या महाभारत का प्रसारण सरकारों के माध्यम से किया जाता है तो एक सवाल काफी चर्चा में रहता है की इसके लेखक कौन कौन थे ? जैसे आपने कई लोगो से सुना भी होगा की महाभारत के संवाद मशहूर लेखक डॉक्टर राही मासूम रजा ने लिखे थे
लेकीन इस सच्चाई में एक और सच्चाई जरा दब सी जाती है कि रजा साहब को पंडित नरेश शर्मा का भी साथ मिला था कहानी इस तरह बताया जाता है कि आज के समय में कोई भी नरेंद्र शर्मा का नाम तक नहीं जानता जबकि धारावाहिक निर्माण के दौरान जब रजा साहब महाभारत के संवाद को लिख रहे थे तो पंडित नरेंद्र शर्मा उनकी काफी मदद कर रहे थे और लेखन के अंत तक इसी तरह मदद करते रहे
प्रचारित तो यह भी किया जाता है कि रजा साहब ने भ्राता श्री और माता श्री जैसे शब्द गढ़े लेकिन ऐसे प्रचारित करने वाले यह भूल जाते है की महाभारत से पहले ही रामायण का प्रसारण हो चुका था और रामायण में मेघनाथ अपने पिता रावण को पिता श्री कहते हुए संबोधित करता है रामायण के संवाद तो रामानंद सागर जी के द्वारा लिखे गए थे तो इसलिए इन शब्दों का श्रेय रामानंद जी को मिलना चाहिए
महाभारत को लिखते समय बताया तो यह भी जाता है कि रजा साहब और पंडित नरेश शर्मा के मध्य लगातार विचार विमर्श होता रहता था दोनों एक दूसरे की मदद करते थे रजा साहब जो भी लिखकर भेजते थे उसको शर्मा जी देखते थे और उसकी सहमति के बाद ही उसका प्रयोग होता था
पंडित शर्मा की बेटी लावण्या शाह के अनुसार राही मासूम रजा ने कहा था कि महाभारत की भूल भुलैया भरी गलियों में मै पंडित जी की उंगली थामे आगे बढ़ता गया
दरअसल हिंदी फिल्मों से जुड़े खास वर्ग के लोग और मार्क्सवादी विचारधारा के अनुयायियों की यह पुरानी तिकड़म है जिसके तहत वे फिल्मों की लोकप्रियता का श्रेय उन संवाद लेखको को देते रहे हैं जो हिंदी उर्दू में मिश्रित भाषा का प्रयोग करते रहे है
और इसे कुछ लोग हिंदुस्तानी कहकर प्रचारित करते फिरते है जैसे आपने कई बार सूना भी होगा की गीतों या संवादों में भी हिंदी शब्दों की बहुलकता को लेकर हमेशा मजाक बनाया जाता रहा है
लेकिन इतिहास गवाह है कि जब भी हिंदी भाषा में संवाद लिखे गए हैं तो लोगों ने खूब पसंद किया चाहे वो भारत देश में हो या जिन देशो में हिंदी भाषी लोग रहते है
पंडित शर्मा जी द्वारा 1961 में फिल्म " भाभी की चूड़ियां " में लिखी एक गीत " ज्योति कलश झलके " काफी लोकप्रिय हुआ था आज भी आप इसे सुन सकते है ऐसे ही कई गीत है जहां हिंदी के शब्दों को लेकर रचना की गई और ना तो गाने वाले और न हीं संगीत देने वाले को कोई दिक्कत होती थी
आज यह गंभीर और गहन शोध की मांग करता है कि कैसे फिल्म जगत में हिंदी को हिंदी और उर्दू मिश्रित जुबान से विस्थापित करने की कोशिश की जा रही है और हिंदुस्तानी के नाम पर भाषा के साथ खिलवाड़ किया गया है
इतना ही नहीं अगर हम रामायण में महाभारत के संवादों पर ध्यान दे तो उसमें भी हिंदी अपनी ठाठ के साथ अपना रूप दिखाती नजर आ रही है जब यह पहली बार प्रसारित किया गया था तब भी और जब दोबारा दूरदर्शन पर प्रसारित किया गया तो दर्शकों को बहुत पसंद आया
हैरान करने वाली बात यह भी है कि उस समय अर्थात 1990 के दशक के दर्शक कुछ अलग थे और आज अर्थात करीब 30 साल बाद दर्शक बदल गए लेकिन लोकप्रियता में कोई कमी नजर नहीं आई है और भाषा को लेकर किसी को कोई समस्या नहीं , न सिर्फ रामायण , महाभारत बल्कि अगर हम बात करें कौन बनेगा करोड़पति या फिर " क्योंकि सास भी कभी बहू थी " कि भी भाषा हिंदी में ही है
और यह सभी काफी लोकप्रिय हुए समय-समय पर इस तरह से धारावाहिक केवल लोकप्रिय नहीं हुई बल्कि इसी के माध्यम से उन्होंने हिंदी भाषा का प्रसार भी किया उन्हें मजबूती भी प्रदान की
धारावाहिक के माध्यम से ही लोगों का हिंदी के कई शब्दों से परिचय हुआ जिससे उनका उपयोग बढ़ा और वह हमारे जीवन के एक साधारण शब्दों की तरह बन गए कौन बनेगा करोड़पति ने कई ऐसे शब्द जीवित किये जो लगभग चलन से बाहर हो गए थे जैसे पंचकोटि
आप सभी को याद भी होगा कि वर्ष 2012 में जब दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में मारीशस के तत्कालीन कला एंव संस्कृति मंत्री चुन्नी रामप्रकाश जी ने कहा था कि हिंदी के प्रचार - प्रसार में बॉलीवुड की फिल्मों और टीवी धारावाहिकों का बहुत बड़ा योगदान है
उन्होंने स्वीकार किया कि उनकी जो भी हिंदी शब्द है वह सिर्फ हिंदी फिल्मों और धारावाहिक देखने के कारण है और वह हिंदी बोल रहे थे ना कि हिंदुस्तानी |
वामपंथ के प्रभाव में हिंदी के साथ भी खिलवाड़ शुरू हुआ है और भाषा को धर्मनिरपेक्ष अर्थात सेकुलर बनाने की कोशिश शुरू हो गई
गंगा - जमुना तहजीब के नाम पर हिंदी में उर्दू को मिलाने की कोशिश सुनियोजित तरीके से शुरू की गई है फिल्मों के प्रभाव को देखते हुए वहां भी कथित तौर पर हिंदुस्तानी को स्थापित करने की कोशिश शुरू हुई है और इसके लिए पंडित नरेन्द्र शर्मा को भी ध्यान में नहीं रखा गया और इसके बाद हिंदी उर्दू मिश्रित संवाद को प्रमुखता दी जाने लगी
अब तो यह नीति का हिस्सा सा बन गया है कि जिसे प्रमुखता देनी हो उसके पक्ष में माहौल बनाओ और जिसको गिराना हो उसके विपक्ष में माहौल बनाओ इसके तहत हिंदी को कठिन बताकर उर्दू मिश्रित हिंदी बेहतर बताकर स्थापित किया गया इस आधारभूत नियम का पालन बॉलीवुड में भी हुआ है लेकिन न तो रामायण की और न ही महाभारत की भाषा को लेकर किसी को कोई समस्या होती है और परिणाम आज आपके सामने लोकप्रियता कहां पर पहुंच गई है
किसी से छिपा नहीं है वरना आज के समय में एक फिल्म को देखने के बाद करीब 90% लोग दोबारा उस फिल्म को नहीं देखते बल्कि रामायण महाभारत को देखने वाले कई लोगों का लगातार रिकॉर्ड टूट रहे हैं
भाषा को दूषित करने के इस खेल में वामपंथियों ने भले ही उर्दू को अपना हथियार बनाया हो लेकिन वे न तो उर्दू के हितैषी और नहीं मुसलमानों के |
अगर राही मासूम रजा जी की इतनी कदर या फिक्र होती तो उनको हिंदी में बेहतरीन कृतियां लिखने पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल जाता साहित्य अकादमी में तो 1975 के बाद से ही वामपंथियों का बोलबाला रहा सिर्फ राही मासूम रजा ही क्यों किसी भी मुसलमान लेखक को इन वामपंथियों ने हिंदी में लिखने के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं दिया
दरअसल ये अपनी विचारधारा को मजबूत बनाने और अपने अपने राजनीतिक आकाओ के हितों की रक्षा के लिए भाषा , धर्म , समाज सबका उपयोग करते रहे हैं साहित्य और संस्कृति को इस विचारधारा वालों ने राजनीति का औजार बनाकर इन विधाओं का इतना नुकसान किया है जिसकी भरपाई निकट भविष्य में तो संभव नहीं है जरूरत तो इस बात की है कि वह भाषाई अस्मिता के साथ खिलवाड़ न किया जाए भाषा के साथ छेड़छाड़ भी ना किया जाए...............
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