दलित vs नस्लवाद ( अमेरिका और भारत की तुलना )
इस समय पूरी दुनिया में कुछ ना कुछ विवाद चल ही रहा है लेकिन जब कोई विवाद अमेरिका में होता है तो उसका प्रभाव डायरेक्ट या इनडायरेक्ट रूप से पूरी दुनिया पर अवश्य ही दिखता है ऐसा ही विवाद कुछ समय पहले अमेरिका देश में हुआ था इस विवाद को हम अश्वेत नागरिकों पर हो रहे अत्याचार के नाम से जानते हैं
विवाद का कारण : अमेरिकी पुलिस ने अश्वेत नागरिक जार्ज फ्लाइट की हत्या गला दबाकर कर दी थी इस खबर के बाहर आते ही पूरे अमेरिकी महाद्वीप इसके साथ ही यूरोपीय देशों में बहुत ही ज्यादा विरोध देखने को मिला था
इन प्रदर्शनों में एक महत्वपूर्ण बात देखी गई है कि अभी तक कि इसमें श्वेत युवाओं की बड़ी संख्या हिस्सेदारी ले रही थी लेकिन अमेरिका देश में अगर देखा जाए तो यह कोई नहीं बात नहीं है समय समय पर ऐसी घटनाएं उसके बाद विरोध होते रहते हैं
एक रिपोर्ट के अनुसार 19 वीं सदी में अमेरिका के दक्षिणी प्रान्तों में चल रही गुलामी की प्रथा को समाप्त करने के लिए जब वहां सिविल वार हुआ तो दोनों पक्षों से श्वेत सैनिक ही लड़े और 10 लाख से ज्यादा श्वेत लोग मारे गए अर्थात अश्ववेतो को गुलामी से मुक्ति मिले इसके लिए श्वेत लोगों ने अपनी जान तक दे दी
अमेरिका में चल रहे उस संघर्ष को हजारों किलोमीटर दूर भारत में रह रहा एक युवक बहुत ध्यान से देख रहा था पुणे के इस युवक का नाम ज्योति राव फुले था जो आगे चलकर ज्योतिबा फुले नाम से दुनिया भर में मशहूर हुआ
अमेरिका में नस्लवाद खत्म नहीं हुआ और संघर्ष आगे भी जारी रहा वहा काले लोगों के वोट देने के अधिकार से लेकर भेदभाव मूलक जिम क्रोला को खत्म करने के लिए एक लंबा संघर्ष चल
इसी प्रकार मार्टिन लूथर किंग समेत कई नेताओं के अगुवाई में सिविल राइट मूवमेंट चलाए गए इन सबमें बड़ी संख्या में श्वेत लोग भी शामिल थे श्वेत लोगों की हिस्सेदारी ऐसे आंदोलन में आज भी देखी जा सकती है
अब भारत की बात किया जाए : - भारत में तो काले गोरे का कोई भेद नहीं है लेकिन जातिगत लड़ाई जरूर था और आज भी है और लगता है कि आने वाले समय में भी जारी रहेगा
यहां सबसे पहले सवाल से बात शुरू करते हैं कि क्या सवर्ण अर्थात हिंदू धर्म के उच्च जातियों में जन्मे लोग भी भारत में जाति अत्याचार और भेदभाव के खिलाफ संघर्ष में शामिल होंगे ?
क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि स्वर्ग भी जाति मुक्त भारत बनाने के लिए आगे आएंगे और इस क्रम में अपने विशेषाधिकार का त्याग करने के लिए तैयार होंगे ?
यह तो देखा ही जा रहा है कि कई भारतीय स्वर्ण सेलिब्रिटीज और वुद्धजीवी अमेरिका में आश्वतो के लिए लगातार न्याय की मांग कर रहे है जैसे दिशा पाटनी, प्रियंका चोपड़ा से लेकर गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई तक के लोग #blacklivesmatter के समर्थन दे चुके हैं
लेकिन क्या इनसे और ऐसे ही अन्य स्वर्गो से यह उम्मीद की जा सकती है कि भारत में जब किसी दलित महिला की हत्या या उसका बलात्कार जातिगत कारणों से हो या किसी विश्वविद्यालय में किसी शिक्षक के भेदभाव के कारण कोई दलित या पिछडा वर्ग का छात्र आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाए तो भी यह इसी तरह से इनके पक्ष में मुखर होकर बोलेंगे ? क्या भारतीय सवर्णों में भी ऐसे प्रगतिशील और उदार लोग है ?
सच तो ये है कि जनरल कास्ट में ऐसे लोगों की तलाश करना आसान नहीं है जातीय उत्पीड़न और भेदभाव के खिलाफ भारत में ही नहीं यूरोप और अमेरिका तक संघर्ष चल रहे है
लेकिन इन आंदोलनों में सवर्ण पुरुष और महिला भी शामिल हो ऐसा आमतौर पर होता नहीं है अगर मैं ऐसे सवर्ण लोगों की एक लिस्ट बनाऊ जिन्होंने आजादी के बाद के 75 वर्षों में जाति मुक्ति के लिए काम किया तो यह बेहद छोटी लिस्ट होगी इनमें मैं राम मनोहर लोहिया, विश्वनाथ प्रताप सिंह और अर्जुन सिंह के अलावा किसी को शामिल नहीं कर पा रहा हूं
राम मनोहर लोहिया स्वयं वैश्य परिवार में पैदा हुए लेकिन इन्होंने कांग्रेस पार्टी और देश की राजनीति में ब्राह्मणों की बढती संख्या के खिलाफ जागरुकता अभियान चलाया जिसकी वजह से खासकर उत्तर भारत में कई पिछड़े और किसान नेता उनके वैचारिक नेतृत्व में शुरू हुई
जागरूकता इनके मरने के बाद भी जारी रहे और 1960 से लेकर 1980 के दशक में उत्तर भारतीय राजनीति में पिछड़ी लोगों में समझ आई जिसे राजनीति विज्ञानी क्रिस्टोफ जैफरले साइलेंट रिवॉल्यूशन कहते हैं
सवर्ण नफरतो से सबसे ज्यादा शिकार हुए जैसे पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह का जन्म जमीदार ठाकुर परिवारों में हुआ लेकिन प्रधानमंत्री रहते इन्होंने वर्षों से धूल खा रही मंडल कमीशन की रिपोर्ट का वो हिस्सा लागू कर दिया जिसे पिछड़ी जाति अर्थात मंडल कमीशन के अनुसार देश में उनकी संख्या 52% है के लिए केंद्र सरकार की नौकरी में 27% आरक्षण देने की सिफारिश की गई थी
पिछड़ी जातियों के सशक्तिकरण और राजकाज में उन्हें हिस्सेदार बनाने की यह अब तक की सबसे बड़ी काम थी इसी सिलसिले को आगे बढ़ाने वाले केंद्रीय HRD मंत्री अर्जुन सिंह भी सवर्ण घृणा के शिकार बने
अर्जुन सिंह भी ठाकुर परिवार में जन्मे थे पद पर रहते हुए इन्होंने उच्च शिक्षा संस्थान में पिछड़ी जातियों के लिए 27% आरक्षण लागू कर दिया इसकी सजा उन्हें मिली कि उस समय की सरकार ने पद से ही हटा दिया जिससे इनका राजनीतिक जीवन समाप्त हो गया क्या ऐसा व्यवहार इनके साथ होना चाहिए था ?
इन तीन ऐतिहासिक चरित्रो को छोड़ दे तो जातीय अत्याचार और भेदभाव के खिलाफ चल रहे संघर्ष में सवर्णों की उपस्थिति लगभग नगण्य ही है इन घटनाओं से हमें क्या लगता है कि बदलाव होना चाहिए या नहीं ?
कुछ घटना के माध्यम से समझा जाये
1.महाराष्ट्र राज्य के खैरलांजी में 2006 में दलित परिवार के साथ बलात्कार और हत्या का विरोध करने का जिम्मा पूरी तरह से दलितों पर आया इसके खिलाफ हुए आंदोलन में दलित ही शामिल है
2.हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के छात्र रोहित वेमुला कि संस्थानिक हत्या हो या मुंबई की डॉक्टर पायल तड्पी की जातीय उत्पीडन के बाद आत्महत्या या राजस्थान की छात्रा डेल्टा मेघवाल की लाश पाए जाने का मामला या फिर गुजरात के ऊना में दलितों की सार्वजनिक पिटाई
या गाय को लेकर दलितों की माब लिंचिंग अर्थात भीड़हत्या इन सब मामलों में आंदोलन दलितों को ही करना पड़ा इन आंदोलनों में सवर्ग हिस्सेदारी सोशल मीडिया ट्वीट और फेसबुक पर पोस्ट शेयर करने से आगे नहीं बढ़ी और ऐसे भी लोग कमी ही थे
2.हरियाणा के भगाना में हुए जातीय अत्याचार के खिलाफ भगाना गांव के लोग लगभग एक वर्ष तक दिल्ली के जंतर मंतर पर धरने में बैठे रहे लेकिन ना तो सवर्ग नेताओ को और न हीं सवर्ण वर्चस्व वाले मीडिया को लगा कि यह एक जरूरी मुद्दा है
3.सुप्रीम कोर्ट के आदेश से जब SC/ST एक्ट कमजोर और बेजान हो गया तो इसके खिलाफ दलितो का बड़ा आंदोलन हुआ और 2 अप्रैल 2018 को भारत बंद भी किया गया था इस क्रम में 12 लोगों की मौत हुई और ये सभी लोग दलित थे दलितों के इस आंदोलन का परिणाम ये हुआ कि संसद ने कानून बनाकर SC/ST एक्ट को पुराने रूप में जारी कर दिया और सुप्रीम कोर्ट ने भी इस कदम को सही बताया था
5.वंचित जातियों के सशक्तिकरण का आरक्षण बहुत महत्वपूर्ण माध्यम रहा है आरक्षण को कमजोर करने के लिए कई लेवल पर कोशिश लगातार हो रही है आरक्षण बचाने के लिए लड़ाई हमेशा SC/ST/OBC जातियों के लोगों और संगठनों को ही लड़ना पड़ा है
हाल ही में यूनिवर्सिटीज में शिक्षकों की नियुक्ति के लिए लाये गए नए रोस्टर सिस्टम के खिलाफ संघर्ष में भी यह बातें देखी गई है
सवर्णों का बड़ा हिस्सा आरक्षण और दलितों , आदिवासियों और पिछडो के सशक्तिकरण का विरोध करता है लेकिन जब केंद्र सरकार ने राजनीतिक उद्देश्य से सवर्णों को आर्थिक आधार पर 10% आरक्षण दिया तो यही सवर्ण लोग सिर्फ चुप ही नहीं रहे बल्कि इसका समर्थन भी किया
सरकार के इस कदम से आरक्षण को लेकर संविधान का यह तर्क कमजोर हुआ है कि राजकाज में हर सामाजिक समूह का प्रतिनिधित्व होना चाहिए
7. भारत के कई सवर्ण बुद्धजीवी और समाजशास्त्री जाति के प्रश्न पर अध्यनन और शोध करते है उन्होंने जाति को लेकर कई किताबे भी लिखी है और पुरस्कार भी जीते
लेकिन सवर्ण बुद्धजीवी कभी ये मांग नहीं करते की जनसंख्या जनगणना में जातियों के आंकड़े जुटाये जाए वे जाति का पूरा विमर्श आंकड़ों के बिना कर रहे हैं भारतीय समाजशास्त्र के सबसे नामी विद्वानों जीएस धुर्ये , एन एन श्रीनिवास, श्याम चरण दुबे और आदरे बेते तक किसी को नहीं लगा की जाति के आंकड़े होने चाहिए
ये भारतीय समाजशास्त्र की बहुत विकट समस्या है जिसकी ओर प्रोफेसर विवेक कुमार ने ध्यान दिया
इसका सही समाधान क्या क्यों नहीं हो रहा ?
इसके दो संभावित वजह हो सकती है
1. पहला अमेरिका देश में अश्वेत आबादी बहुत ही कम है अश्वेत और उनकी मिली जुली नस्ल के लोगों को मिला दे तो भी उनकी आबादी 14% से कम ही रही है अर्थात आने वाले दशको और हो सकता है कि सदियों तक अमेरिका श्वेत बहुलकता वाला देश बना रहे इसलिए श्वेत लोगों को यह लगता है कि अपने कुछ विशेष अधिकारों को छोड़ने से उनके वर्चस्व पर कोई निर्णायक फर्क नहीं पड़ेगा
इसी तरह भारत देश में हिंदू सवर्ण एक अल्पसंख्यक श्रेणी में है जबकि बात हमेशा की जाती है कि मुस्लिम अल्पसंख्यक में है जो बात पूरी तरह से 100% गलत है दलित आदिवासी और पिछड़ा वर्ग से तुलना किया जाए तो सवर्णों की आबादी बहुत ही कम है लेकिन कब आबादी होने के बाद भी इनके पास बहुत ज्यादा संसाधन और सत्ता अर्थात पावर है अगर यह उदार होते तो इनका यह घमंड और मान सम्मान तो टूट जाएगा इसलिए इन्होने आज तक कभी भी सभी के बारे में सोचा ही नहीं |
2.समाज सुधार को लेकर सवर्णों की हिचकिचाहट को डॉक्टर बी आर अंबेडकर ने बहुत अच्छे से समझा था इन्होंने अपनी किताब " शुद्र कौन थे "
पहले तो ये यह पूछते हैं कि ब्राह्मण में वोल्टेयर जैसा कोई शख्स क्यों पैदा नही हुआ ? जो कैथोलिक होते हुए भी कैथोलिक चर्च की सत्ता से लड़ गया इसका जवाब देते हुए बाबा साहब लिखते हैं कि सवाल का जवाब सवालों के जरिए ही दिया जा सकता है............
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koi kuch bhi kahe par baate 100% sahi hai lekin kisko samjh me aayega ye to aane wala samy hi bataye ga
जवाब देंहटाएंye sab ek dikhawa hai jisko pujaa ya ajaan karna hota hai wo n jagh dekhta hai na hi time aur na hi ye dekhta hai ki kaun kya kya kahega
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