इस्लामी शिक्षा का सही स्वरुप क्या है ?

  




इस्लामी शिक्षा का सही स्वरुप क्या है ?

समय समय पर आप चाहे किसी नेता के भाषण को सुनते है या किसी टीवी चैनल डिबेट में एक बात दोनों ही जगहों पर समान रही है वह है इस्लामिक शिक्षा का स्वरुप कैसा है और आगे के लिए कैसा होना चाहिए धार्मिक मुद्दा होने के कारण कोई खुलकर बात नही करता है लेकिन  बिना बात किये इसको समझा भी नही जा सकता है 



क्योकि जब देश और दुनिया कोरोना महामारी से लड़ रही थी तो भारत में टीवी चैनलों और सोशल मिडिया पर लगातार बहस हो रही थी की कुछ लोगो की गलती के कारण से पुरे समुदाय को बदनाम किया जा रहा है जैसे कोरोना के दौरान जब सरकार ने सूचना जारी करके सभी सार्वजनिक कार्यकर्मो पर रोक लगा दिया था 

उसके बाद भी दिल्ली में तब्लीगी जमात के लोगो ने इक्कठा होकर कार्यक्रम को पूरा किया जिसके बाद देशभर में महामारी और फ़ैल गई फैली तो पहले ही थी बस हवा देने की जरूरत थी जो इसने पूरा कर दिया था ऐसे ही एक दो और घटना सामने आई थी जैसे इंदौर और मुरादाबाद में डाक्टरों के साथ मारपीट की घटना हुई तो एक तरह से अल्पसंख्यक के साथ साथ बहुसंख्यक समाज के मन में कही न कही धार्मिक शिक्षा पर सवाल खड़ा करना शुरू कर दिया क्योकि धर्मिक शिक्षा का असर ही हमारे व्यवहार पर पड़ता है 



विस्तार : जैसे कुरान शरीफ़ में साफ़ शब्दों में लिखा गया है की आप जिस भी मुल्क/देश में रहते हो उस देश के हुक्मरानों/सरकारों की बात मानो फिर भी कुछ लोग इसका विरोध करना अपनी शान समझते है क्योकि कोरोना के समय जब सऊदी अरब जैसे इस्लामी देश में भी सभी मस्जिदे बंद कर दी गई थी तो भारत में कुछ जगहों पर जुम्मे की नमाज मस्जिद में पढ़ने की जीद क्यों लगा रखी थी ?



जबकि इस्लामिक देशो में सबसे पवित्र सऊदी अरब के मक्का और मदीना स्थल को ही माना जाता है इस तरह से किसी भी मजहब में दी गई बुनियादी शिक्षा को यदि उसके वास्तविक स्वरुप में देखा और पालन किया जाये तो शायद ही कोई विवाद की स्थिति उत्पन्न हो

कुरान और हदीस की मान्यताओं को दुनिया तक ठीक-ठीक पहुंचाने के लिए भारत में दारुल उलूम देवबंद एवं अहले सुन्नात वल जमात ( बरेलवी समुदाय ) जैसे आंदोलनो की शुरुआत हुई

यह वह समय था जब 1857 की क्रांति को अंग्रेजों के द्वारा कुचले जाने के बाद राजे - राजवाडो के हौसले खत्म हो गए थे देश में उस समय न तो हिंदू संगठित थे और ना ही मुसलमान |

1857 की क्रांति के पहले राजे - राजवाड़े और नवाबों, बादशाहों की छोटी-छोटी रियासतों ने अपने समुदायों को संगठित और शिक्षित करने की जरूरत ही महसूस नहीं की लेकिन इस क्रांति के बाद हाजी आविद हुसैन और मौलाना कासिम ने 30 मई 1866 को दारुल उलूम देवबंद की आधारशिला रखी



यू तो दारुल उलूम की स्थापना इस्लामी शिक्षा एवं संस्कृति को सहेजने संवारने के लिए हुई थी लेकिन इसने स्वतंत्रता आंदोलन में भी अहम भूमिका निभाई दारुल उलूम देवबंद के संरक्षण एंव अध्यापक मौलाना महमूद अल हसन के प्रमुख शिष्य मौलाना उबैदुल्ला सिंधी ने 1914 में अफगानिस्तान जाकर अंग्रेजों के खिलाफ अभियान चलाया और वहां पर भारत की पहली स्वतंत्र सरकार स्थापित की

इस सरकार का राष्ट्रपति राजा महेंद्र प्रताप को बनाया गया साफ़ है की भारत में मोहम्मद अली जिन्ना के आने से पहले यहां के हिन्दुओ और मुसलमानों को साथ लेकर चलने का प्रयास देवबंदी और बरेली जैसी संस्थाएं करती आ रही थी

दारू उलूम देवबंद , अहले सुन्नत वल जमात और जामिया मिलिया इस्लामिया , अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय , हमदर्द यूनिवर्सिटी जैसे संस्थानों से बड़ी संख्या में इस्लामी विद्वान निकले और देश के साथ साथ विदेशो में भी इस्लामी शिक्षा को फैलाने का काम शुरू किया



चुकी कुरान सऊदी अरब में लिखा गया था इसलिए इसकी भाषा अरबी है उसकी जुबान और लिपि में इसलिए बदलाव नहीं किया गया क्योंकि अनुवाद करने पर कुछ ना कुछ परिवर्तन आ ही जाता है इसलिए जब भी कुरान शरीफ को पढ़ा जाता है तो उसे अरबी में ही पढ़ा जाता है

कुरान और हदीस अगर समझनी है तो अरबी या उर्दू आना जरूरी है इन संस्थानों में उर्दू और अरबी की शिक्षा से ही पाठ्यक्रम की शुरुआत होती है प्राइमरी की शिक्षा पूरी करने में 5 वर्ष लगते हैं इसके बाद अगले 8 वर्ष "आलिम " बनने में लगते हैं जो कुरान शरीफ को उसकी व्याख्या के साथ समझा सकता हो उसे आलिम कहते है

और जो कुरान का बिल्कुल सटीक पाठ कर सके उसे " कारी " का पद दिया जाता है यदि इस्लामी शिक्षा का स्वरूप ऊपर से नीचे तक इसी रूप में पहुंच पाता तो कोई समस्या नहीं होती क्योंकि तब वह कुरान और हदीस में दिए गए संदेश हर मुस्लिम तक उनके सही स्वरूप में पहुंचते और लोग उसी के अनुसार पालन करते



मिश्र , मलेशिया , तुर्की आदि देशों में तो इस्लामी शिक्षा के संस्थान अपनी शाखाओ और उप - शाखाओ को खुद से जोड़े रखते हैं पर भारत में स्थापित प्रमुख संस्थान अपनी शाखाओ और उप -शाखाओ को खुद से जोड़े रखने का कोई सिस्टम विकसित ही नहीं कर पाए आज तक |

बरेली, देवबंदी या ऐसी ही अन्य संस्थानों से निकले या नहीं भी निकले कुछ लोग शहरों , गांव में मदरसा तो स्थापित करते गए लेकिन उन्हें दी जा रही शिक्षा को स्तरीय बनाए रखने का कोई प्रबंध नहीं कर सके मदरसों में शिक्षा देने वाले खुद पूरी तरह शिक्षित है या नहीं इसके इसे जांचने के लिए कोई भी माध्यम नहीं है

देश का मुसलमान अपनी मजहबी किताबों को पढ़ना, समझना और उन पर अमल करना ही अपना कर्तव्य समझता है जो होना भी चाहिए पर इसके लिए उसे मदरसों के शिक्षित , अर्ध - शिक्षित मौलानाओ , मौलवियों पर ही निर्भर रहना होता है



जैसे प्रत्येक शुक्रवार (जुमे की नमाज ) नमाज से पहले मस्जिदों में खुतबा अर्थात व्याख्यान देने का फर्ज है कि वह देश - दुनिया , शहर, कौम एवं हालात को देखते हुए कुरान की रोशनी में लोगों को मार्गदर्शन दे लेकिन यह काम कोई आलिम ही कर सकता है गली मोहल्ले की मस्जिदो या मदरसों में इस्लाम का सही जानकारी रखने वाला हो ही यह जरूरी नहीं है और यह स्थिति " नीम हकीम खतरे -ए-जान " वाले हालात पैदा कर रही है हम सब को इससे बचना ही होगा तभी एक सार्थक समुदाय का विकास होगा और लोगो तक सही जानकारी पहुच सकेगी .......


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