आगरा का ताजमहल vs आगरा का पेठा
आगरा का नाम सुनते ही मन में दो बहुत ही महत्वपूर्ण यादें ताजा हो जाती है एक विश्व का सातवां अजूबा ताजमहल और दूसरा आगरा का पेठा | इसलिए आगरा को ताज नगरी के साथ-साथ पेठा नगरी भी कहा जाता है यह दोनों ही इस शहर की मान और शान है लेकिन अब यह ही इसके लिए अभिशाप बन चुके हैं |
भारत में रहने वाला शायद ही कोई ऐसा शख्स होगा जिसने अपने जीवन में कभी पेठा नहीं खाया हो देश या विदेश से जो भी व्यक्ति आगरा घूमने आता है ताजमहल और पेठा के बिना उसकी यात्रा पूरी नहीं मानी जाती है |
उत्तर भारत में प्रसिद्ध व्यंजन में पेठा का मिठाई का अपना एक विशेष महत्व रहा है उत्तर प्रदेश में आगरा पेठा की मिठाई के लिए विश्व प्रसिद्ध है और राज्य सरकार भी आगरा के पेठे को विशेष पहचान देने के लिए तथा इसके विकास के लिए कई योजनाओं को लागू कर चुकी है इसके अंतर्गत प्रदेश के जिलों को एक विशेष उत्पाद से जोड़ा गया है इस योजना का नाम है "वन डिस्ट्रिक वन प्रोडक्ट " (एक जिला एक उत्पाद ) दिया गया जिसके कारण से इसका काफी विकास हुआ है |
इतिहास : 1940 से पहले तक पेठा का आयुर्वेदिक औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता था इसके प्रयोग अम्लवित्त्त , रक्तिव्क्र , बात प्रकोप और दिल की बीमारी में किया जाता था लेकिन 1945 के बाद से इसके स्वाद में बदलाव आया आज भी कई स्थानों पर दवा के रूप में होता है |
अलग-अलग भाषाओं और स्थान पर अलग-अलग नाम है जैसे शीतकालीन तरबूज , याहिंदी और उर्दू में इसे पेठा कहा जाता है इसकी खेती भारत के साथ-साथ पाकिस्तान और श्रीलंका में भी अधिक मात्रा में होती है ऐसा माना जाता है कि पेठा का जन्म मुगल कालीन शासक शाहजहां की रसोई में हुआ था क्योंकि ताजमहल को बनाने में 21000 श्रमिकों ने 22 वर्षों तक लगातार काम किया इन श्रमिकों को लगातार ऊर्जा के खुराक और हाइड्रेटेड रखने के लिए पेठा बनाया गया था अर्थात जितना पुराना ताजमहल उतना ही पुराना आगरा का पेठा |
एक अन्य कहावत यह भी है कि शाहजहां ने ताजमहल की तरह ही शुद्ध और सफेद मिठाई मांगी और इसके जवाब में पेठा बनाया गया शुद्धता इस बात की भी है कि इसमें ना तो तेल और ना ही किसी केमिकल का प्रयोग होता है जो इसे विशेष बना देता है और इस प्रकार पेठा मुगल काल से ही काफी पसंद किया जाता रहा है |
पेठा बनाने की विधि : सबसे पहले कच्चा पेठा को छिलकर बीज और इसके गुदा को बाहर निकाल लिया जाता है इसे चौकोर टुकड़े में काटकर टुकड़ों में छोटे-छोटे छिद्र करते है जिससे चासनी इसके अंदर आसानी से जा सके टुकड़ों को दो से तीन घंटे के लिए चुने के पानी में डालकर ढक दिया जाता है इसके बाद इन टुकड़ों को कई बार पानी से धोकर गर्म पानी में पकाया जाता पकाते समय फिटकरी की कुछ मात्रा डाली जाती है एक निश्चित समय के बाद पानी से छानकर चाशनी में पूरी रात भर के लिए रख दिया जाता है पेठा बनाने में पेठा के बाद इसमें सबसे अधिक चीनी का प्रयोग होता है इसके बाद ही इससे कई तरह की मिठाई तैयार किए जाते हैं जहां तक पेठा के मिठास की बात है तो इसका राज आगरा के पानी में भी है आगरा के पानी में वह मीठापन है जो पेठा जैसे कसैले फल को भी स्वादिष्ट मिठाई में बदल देता है |
आगरा के पेठा की विशेष बात यह भी है कि यह पेठा स्वादिष्ट और चमकीला होता है इसके साथ ही यह जल्दी खराब नहीं होता और इस प्रकार आज आगरा में 56 तरह के पेठा का उत्पादन किया जाता है |
आगरा जिला : 4027 वर्ग किलोमीटर में फैला यह शहर सिकंदर लोदी ने इस शहर को 1504 में बसाया था आगरा यूपी के उत्तरी भाग में यमुना नदी के किनारे बसा है जो लखनऊ से 380 किलोमीटर की दूरी पर है उत्तर प्रदेश के सबसे अधिक जनसंख्या वाले शहरों में से एक शहर आगरा भी है और भारत का 24 वा सबसे अधिक |
आगरा अपने चमड़े के काम ,आगरा का पेठा और पर्यटक के साथ अन्य कई कारणों से प्रसिद्ध है |
समस्याये : सबसे बड़ी समस्या पेठा के निर्माण में होने वाली गंदगी और कचरे से है जिस प्रकार दिल्ली के गाज़ीपुर लैंडफिल से उठने वाली बदबू और गंदगी के स्थानीय लोग हमेशा परेशान रहते हैं इसी तरह से पेठा बनाने से उत्पन्न कचरा आगरा के पेट निर्माता को कारोबार के अनुसार तीन भागों में बांटा गया है
1. छत्ता जोन
२. ताजगंज जोन
3. लोहा मंडी जोन
सबसे अधिक 90 पेठा इकाईया छत्ता जोन में है इस जोन के अंतर्गत आने वाले नूरी दरवाजे में सबसे अधिक 70 इकाईया है इस जोंन से प्रतिदिनं 11000 किलो पेठा का कचरा निकलता है इसी तरह लोहा मंडी जोन की 25 इकाइयों से प्रतिदिन 4700 किलो कचरा और ताजगंज जोन की 15 इकाइयों से 1700 किलो कचरा निकलता इन सभी को मिला दिया जाए तो करीब 18000 किलो या 18 टन कचरा प्रतिदिन इकट्ठा हो जाता है समस्या इतनी अधिक बढ़ गई है कि आप नाक बंद करके भी इन रास्तों से नहीं गुजर सकते |
बताएं तो यह भी जा रहा है कि नूरी दरवाजे पर लाल पत्थर से बने रास्ते भी अब सफेद हो चुके हैं और नालियों का पानी भी एकदम सफेद दिखाई देता है पेठा बनाने की प्रक्रिया और निकलने वाले ठोस कचरे का समाधान और प्रबंधन हमेशा से ही आगरा नगर निगम के लिए किसी चुनौती से कम नहीं रहा है आगरा जोन में प्रतिदिन कच्चे पेठा का इस्तेमाल और निकलने वाले कचरा पर एक रिपोर्ट 2013 में एशिया पेसिफिक जनरल आफ मार्केटिंग एंड मैनेजमेंट रिव्यू में प्रकाशित हुई जिसमें बताया गया था कि आगरा में प्रतिदिन 628 टन ठोस कचरा पैदा होता है जिसमें से 36 से 40 टन कचरा पेठा से ही होता है इसके साथ ही एक रिपोर्ट 2014 में भी प्रकाशित हुई थी जिसके अनुसार आगरा में 1500 पेठा इकाईयो का जिक्र है और प्रतिदिन 700 से 800 टन पेठा का उत्पादन होता है |
ताजमहल vs आगरा : 2013 से पहले आगरा की लगभग सभी पेठा व्यावसायी कोयले या लकड़ी का प्रयोग कर रही थी लेकिन 1996 में प्रदूषण के बढ़ते स्तर और ताजमहल को प्रदूषण से नुकसान को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ताजमहल जोन में कोयले को प्रतिबंधित कर दिया और 1999 में से ही राज्य प्राधिकरण ने 10400 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को ताजमहल को प्रदूषण से बचाने हेतु सुरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया गया और उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और जिला प्रशासन को आदेश दिया गया कि प्रदूषण को कम करने के लिए पेठा उद्योगों को शहर के बाहर स्थापित किया जाए इस आदेश के बाद से ही आगरा के पेठा का पूरा दृश्य ही बदल गया
इस क्षेत्र में आने वाले लोगों को कोयले के स्थान में प्राकृतिक गैस का प्रयोग करना अनिवार्य कर दिया गया जो ऐसा करने में सक्षम नहीं थे उन्हें सरकार ने दूसरी जगह जाने के लिए कहा |
प्रशासन ने जल्दीबाजी में कालिंदी विहार को पेठा नगरी के रूप में चिन्हित किया और वर्ष 2013 में पेठा कारोबार के लिए सबसे चुनौतीपूर्ण वर्ष माना जाता है क्योकि इसी वर्ष प्रशासन ने कोयला लेकर आगरा आने वाले सभी ट्रकों पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया था जिससे पेठा निर्माताओ के पास ईंधन की समस्या आ गई और इस कारोबार को अपना रूप बदलना पड़ा जो ऐसा नहीं कर पाए वो या तो अपना कारोबार ही बंद कर दिया या फिर कहीं और चले गए
प्रशासन की सख्ती के बाद जो कालिंदी विहार में 15 से 20 इकाईया स्थापित हुए थे वर्तमान में केवल एक ही पेठा इकाई काम कर रही है क्योंकि यहां पानी की गुणवत्ता खराब थी ताजमहल को प्रदूषण से बचने के लिए जो बदलाव किया गया उसे तो नुकसान हुआ ही है लेकिन कोरोना महामारी ने तो इस कारोबार का पूरा हाल ही खराब कर दिया था
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के द्वारा हाल ही में प्रकाशित रिपोर्ट पेठा वेस्ट मैनेजमेंट इन आगरा सिटी इन एनालिसिस के अनुसार आगरा में प्रतिवर्ष लगभग 800 टन ठोस कचरा निकलता है वर्ष 2021 में प्रतिदिन के हिसाब से 17800 किलो या 18 टन निकलता है और प्रति वर्ष बढ़ता ही जा रहा वर्ष 2013 से 2021 के मध्य आगरा के पेठा व्यवसाय की दशा और दिशा काफी हद तक बदल गई |
एक्सपर्ट का मानना है की कोयला बंद होने से लगभग 85 % पेठा इकाइयां बंद हो गई है क्योंकि 2013 के पहले यहां करीब 500 पेठा इकाइया थी जो वर्तमान में 70 ही बची है और इनमे प्रतिदिन लगभग 27 टन पेठा का उत्पादन हो रहा और इस प्रक्रिया से 18 टन कचरा भी निकालता है |
नूरी दरवाजा जो पहले पेठा कारोबार का गढ़ माना जाता था आज आपको गिने चुने दुकान मिलेगी
हैरानी तो इस बात की भी है कि आगरा के नगर निगम को यह जानकारी ही नहीं है कि प्रतिदिन पेठा कारोबार से कितना ठोस और कितना गीला कचरा निकलता है इसके साथ ही अब पेठा का उत्पादन उत्तर प्रदेश के अन्य शहरों के साथ-साथ भारत के अन्य राज्यों में आगरा का पेठा नाम से उत्पादन बहुत ही अधिक हो रहा है जिसके कारण से असली नकली की पहचान करना मुश्किल हो गया है आगरा में ही आपको एक ही नाम के बीसो दुकान मिल जाएंगे जिनके पेठा के स्वाद भी अलग-अलग मिलता है जो एक बड़ी समस्या मानी जा रही है |
इसमें सरकार की भी गलती है क्योंकि सरकार ने कभी इस कारोबार को बढ़ावा नहीं दिया जैसे गैस में कोई सब्सिडी नहीं दी यहाँ 1 जनवरी 2022 को आगरा में कमर्शियल गैस सिलेंडर का दाम करीब ₹2100 हो गया
कोरोना के समय सरकार ने सभी सेक्टरो को कई प्रकार की राहत का एलान किया लेकिन हमे किसी भी प्रकार की राहत नहीं दी गई पेठा के कारोबार को उद्दोग कहना भी गलत माना है बल्कि यह तो एक लघु और कुटीर उद्दोग है क्योकि अधिकतर इकाईया छोटे स्तर की है |
समाधान : अगर पेठा इकाईया से निकलने वाले कचरे का अच्छे से प्रबंध कर दिया जाए तो काफी हद तक कारोबार को राहत मिल जाएगी एक रिपोर्ट के अनुसार शहर के आसपास 200 पशु फार्म है जहां प्रतिदिन 40000 से 50000 किलो पशु कचरे की जरूरत होती है अगर पेठा के कचरे को यहां पहुंचा दिया जाए तो पूरा कचरा को खपाया जा सकता है पेठा का कचरा पशुओं के लिए एक अच्छा आहार माना जाता है नूरी दरवाजे पर स्थित केवल 3% इकाइयों को ही आगरा नगर निगम की सुविधाए मिलती है जिसके बदले में 1000 से ₹1500 का शुल्क देना होता है अधिक शुल्क के कारण से अधिकतर लोग कचरा को जहां-तहा जगह मिला वहीं फेंक देते हैं लोहा मंडी जोन के करकेटा में तो पेठा निर्माताओ को नगर निगम की सुविधा ही नहीं मिलती अगर इनको पशु फार्म और गौशालाओ से जोड़ दिया जाए तो इनको कचरा फेंकने की नौबत ही नहीं आएगी ...............
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