महिलाओ को कब मिलेगा ? बराबरी का अधिकार

 


महिलाओ को कब मिलेगा ? बराबरी का अधिकार 

हर वर्ष महिलाओ की अधिकारों/हक़ की बात करने के लिए 8 मार्च को अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है और दुनिया के लगभग सभी देशो में बड़े ही धूम - धाम से जैसे अमेरिका देश में तो इसको लेकर कई महीनो से तैयारी की जाती है और इस दिन ही पिछले एक वर्ष में महिलाओ के द्वारा प्राप्त की गई उपलब्धियों के कारण अमेरिकी महिलाओ को राष्टपति के द्वारा पुरस्कृत किया जाता है

ऐसे ही कार्यक्रम लगभग सभी देशो में होते है और होना भी चाहिए क्योकि पूरी दुनिया में आधी आबादी तो इन महिलाओ की ही तो है इसलिए ही हम आज महिलाओ के अधिकारों को लेकर विस्तृत चर्चा करने वाले है क्योकि बहुत ही जल्द फिर से अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस आने वाला है फिर वही बात होगी की हमने इनके लिए क्या क्या नहीं पर कितना किया गया आज हम आपसे बात करेंगे 



विस्तार : महिलाओ के अधिकारों के बारे में विस्तार से पूरी दुनिया में चर्चा करने के लिए 1995 में पहली बार अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस का आयोजन किया गया इस मंच की जरूरत इसलिए भी महसूस की जा रही थी क्योकि महिलाओं के कार्य क्षमताओं को लेकर पूरे विश्व में और हर समाज में भ्रम जो फैला है की महिलाये ये काम नहीं कर सकती है ये तो महिलाओ के लिए बना ही नहीं है 

और आज हकीकत तो यह है कि दुनिया का कोई भी देश यह 100% दावा नहीं कर सकता है कि उसके देश में महिलाओं और पुरुषों में भेदभाव नहीं होता ऐसा नहीं है कि दुनिया भर में महिलाओं के लिए सरकार कदम नहीं उठा रही है लेकिन जितना तेजी से बदलाव आना चाहिए वह कहीं ना कहीं अभी बहुत धीमा है

जैसे भारत देश में ही पिछले वर्ष मनाये गए महिला दिवस कार्यक्रम का आयोजन किया गया जो करीब 10 दिनों तक चला जिसमे हजारों सेमिनार,  कार्यशाला , सम्मेलन का आयोजन जगह पर किया गया इस पूरे अभियान का फोकस महिलाओं से जुड़े थीम : शिक्षा, स्वास्थ्य , पोषण , महिला सशक्तिकरण ,कौशल और उद्यमिता खेलो में भागीदारी,  उत्तर पूर्वी आदिवासी ग्रामीण महिला,  कृषि व शहरी महिला इसके साथ ही पुलिस बल, खनन कार्य समेत ISRO आदि में महिलाये और सुरक्षा जैसे विषयों पर विस्तार से चर्चा की गई है



महिला स्वास्थ्य पर : आज देश में महिलाओं के स्वास्थ्य की बात करें तो सरकार की पहली प्राथमिकता इस समय मातृत्व मृत्यु दर को कम करना और इस दिशा में देश लगातार काम कर रहा है देश में महिलाओं का स्वास्थ्य हमेशा से गंभीर मुद्दा बना रहता है

देश में आजादी के बाद पहली बार महिलाओं की स्थिति जानने के लिए 1974 में एक समिति का गठन किया गया इस समिति की रिपोर्ट 1974 में जारी की गई और कई बड़ी बड़ी बातें सामने आई जैसे जनसंख्या और स्वास्थ्य सेवाएं तक पहुंच संबंधी आंकड़े बताते हैं कि महिलाओं के प्रति बहुत लापरवाही सरकार ने बरती है उन्हें एक खर्च की जाने वाली वस्तु की तरह देखा जाता रहा है कई दशको से महिलाओं के गिरते अनुपात की भी व्याख्या इस रिपोर्ट के माध्यम से बताया गया है 

इस तरह से 1974 से लेकर आज 2024 तक लगभग 50 वर्ष तक का सफर बताता है कि सरकार अब महिलाओं के स्वास्थ्य को लेकर जो आंकड़े जारी किए गए थे उसे पर ध्यान धीरे-धीरे दे रही है 



भारत में मातृत्व मृत्यु दर के आंकड़े पर ध्यान दे तो इस प्रकार है 

वर्ष 2014-16 में : 130 महिलाये प्रति 1 लाख पर ( मौत की शिकार )

2015-17 : 122 महिला प्रति 1 लाख पर

2020 : 100 टारगेट रखा गया था 

2030 : 70 करने का लक्ष्य रखा गया है सरकार के द्वारा 

कई लोग सवाल करते हैं कि क्या भारत जैसा विशाल व विकासशील देश तय सीमा से इस लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा ? 

भारत सरकार इसके लिए प्रतिबद्ध और इसके पीछे उसकी बनाई नीति है जैसे स्वास्थ्य परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा शुरू की गई योजनाएं जैसे जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम,  जननी सुरक्षा योजना,  प्रधानमंत्री सुरक्षित मातृत्व अभियान,  लक्ष्य कार्यक्रम,  आयुष्मान भारत , हेल्थ एंड वैलनेस सेंटर आदि 

अगर मातृत्व मृत्यु दर को राज्य वाइज देखे तो कुछ इस प्रकार है 2015-17 के आंकड़े :- 

असम में 229 प्रति लाख ( मौत की शिकार )

यूपी में 216

मध्य प्रदेश में 188

राजस्थान 186

केरल में 42 

जबकि पूरे भारत का औसत 122 है कुल मिलाकर के केवल भारत के केरल राज्य का ही सही है वरना आंकड़े तो आपके सामने ही है इसी को देखते हुए 2016 में प्रधानमंत्री सुरक्षित मातृत्व अभियान की शुरुआत की गई इसके अंतर्गत हर महीने की 9 तारीख को सरकारी अस्पतालों में गर्भवती महिलाओं की मुफ्त जांच किया जाएगा 

इस अभियान के तहत आज पूरे भारत देश में कुल 6219 निजी स्वास्थ्य सेवा केंद्र बने हैं अक्टूबर 2019 में सुमन नामक जो पहल लांच की गई थी उसका उद्देश्य यही था कि स्वास्थ्य सेवाये महिलाओं के पास आसानी से और गुणवत्तापूर्ण पहुंचे

आज आप महिलाओं की स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर कितना/कितनी संतुष्ट हैं ?



महिलाओं के लिए रोजगार : आर्थिक भागीदारी के बिना महिला सशक्तिकरण की बात करना बेईमानी होगी आर्थिक भागीदारी की मूल दो बातें हैं :- 

1. संपत्ति में हिस्सेदारी 

2.श्रम में भागीदारी

हमारे देश में अगर ध्यान से आकलन किया जाए तो दोनों में ही कमी पाई गई है 

एक रिपोर्ट के अनुसार भारतीय श्रम बाजार में जहां पुरुषों की संख्या का प्रतिशत लगभग 78% और महिलाओं की बात करें तो मात्र 23 से 24% अधिकतम बताया जो महिला सशक्तिकरण के साथ ही सभी के विकास के लिए एक चिंता का विषय है 

क्योंकि महिलाओं के श्रम में हिस्सा नहीं लेने का असर देश की तरक्की पर भी पड़ता है और उसका नुकसान हमेशा भारत देश को उठाना पड़ता है भारतीय में महिला पुरुष कार्यबल में भागीदारी के अंतर के पीछे के कारणों को भी विभिन्न स्तरों पर समझा जा सकता है 

जिसमें प्रमुख शिक्षा, पारिवारिक एवं वैवाहिक स्थिति, सामाजिक व्यवस्था व सुरक्षा ये सभी कारक भारतीय परिपेक्ष्य में डायरेक्ट और इनडायरेक्ट रूप से जरूर प्रभाव डालते हैं अगर हम भविष्य को भी ध्यान में रखें तो चौथी औद्योगिक क्रांति के संदर्भ में केवल शिक्षा प्राप्त कर लेने से श्रम में भागीदारी पर्याप्त नहीं है तथा इसके साथ विशेष तकनीकी प्रशिक्षण की भी आवश्यकता होती है

 शिक्षा में विषमता के बाद जो दूसरा अवरोध महिलाओं के श्रम भागीदारी को रोकता है वह पारिवारिक बंधन |

परिवार कभी सामाजिक सम्मान के आधार पर,  सुरक्षा के आधार पर,  कभी पारिवारिक जिम्मेदारी के निर्माण के तहत महिलाओं के कार्यबल का विरोध करता है हालांकि बदलते परिवेश में ऐसे शिक्षित परिवार भी हैं जो इन धारणाओं के विपरीत महिलाओं को शिक्षा , रोजगार के लिए समान अवसर प्रदान करने पर यकीन रखते हैं


2012 में किए गए वर्ल्ड वैल्यू सर्वे के अनुसार 63% महिलाये और 48% पुरुष यह मानते हैं कि महिलाये ,  पुरुष की तुलना में श्रम क्षेत्र में कम सक्षम है इसके अतिरिक्त महिलाओं को गिने चुने क्षेत्र में रोजगार की संभावना तक सीमित रखना चाहते हैं जैसे टीचर, नर्स, एयर होस्टेस ,आईटी फील्ड में महिलाओं की भागीदारी का एक सबसे महत्वपूर्ण कारक सुरक्षा और सक्षम कार्य क्षेत्र का होना पाया गया है 

वर्तमान समय में महिलाये बदलते परिवेश के अनुसार निरंतर पुरुषों से कदमताल मिलाकर चल रही है किंतु जैसा कि लगातार आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में आज भी महिलाओं की कार्यक्षेत्र में भागीदारी बढ़ नहीं रही है | 

महिलाओं के लिए किसी भी फील्ड में काम करने के लिए कैसा माहौल और सुविधाये होनी चाहिए ? 



महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा : हाल ही में एक फिल्म रिलीज हुई थी " थप्पड़ " शुरू से ही काफी चर्चा में रही और निर्देशक अनुभव सिन्हा और केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्रालय स्मृति ईरानी के द्वीट् आपने देखा ही होगा की कितना बवाल हुआ था इसके प्रसंग को लेकर क्योकि इस फिल्म में एक सीन के दौरान कहा जाता है " की महिलाओं को एडजस्ट करना पड़ता है " और ऐसी घटनाएं केवल गरीबों घरों में नहीं होती है बल्कि बड़े बड़े अमीर घरों में भी देखा गया और कितनी महिलाएं अपनी बेटियों को या बहू को कहती है कि कोई बात नहीं बेटा यह तो हमारे साथ भी हुआ था लेकिन देखो आज हम कितने खुश है ये बाते आप अक्सर लोगो के माध्यम से सुनते ही होंगे  

किसी भी महिला को मारना सही नहीं है एक थप्पड़ |  यहां पर हमें मुख्यतः 2 बातों पर ध्यान देना होगा :-

 1. जब खुश रहने की बात की जाती है 

2.जब महिलाओं के खिलाफ हिंसा की बात सामने आती है 


पिछले ही दिनों सुधीर चन्द्र की पुस्तक रख्माबाई  स्त्री अधिकार और कानून के पुस्तक के बारे में जानकारी मिली इस घटना में समाज को कई नई सीख मिलती है बात 1884 की है जब 
रख्माबाई के ऊपर मुकदमा चला और मुकदमे को जिस प्रकार एक महिला ने लड़ी आज तक ऐसी महिला पूरे इतिहास में नहीं हुई है उस समय के हिसाब से यह विवाद एक साधारण था 

मात्र 11 वर्ष की उम्र में इनकी शादी कर दी गई थी पर वह इतने कम उम्र में शादी नहीं करना चाहती थी बाल विवाह के बाद उनका स्कूल जाना अचानक बंद हो गया वह पढ़ना चाहती थी लेकिन संभव नहीं हो पा रहा था और बाद में उन्होंने एक लाइन लिखी " मै उन अभागी स्त्रियों में से हूं जो बाल विवाह की प्रथा से जुड़ी अवर्णनीय कष्टों को झेलते रहने के लिए विवश हु समाजिक रूप से बेहद गलत इस प्रथा ने मेरे जीवन की खुशियों को समाप्त कर दिया यह मेरे और उन चीजों के बीच आ खड़ी हुई है जिन्हें मैं सबसे ज्यादा मूल्यवान मानती हूं वह है अध्ययन और मानसिक विकास " |



और विरोध करने के कारण हमें समाज से अलग-थलग भी कर दिया गया है और आगे इसको लेकर रख्माबाई ने बाल विवाह को चुनौती दे दी पति के घर जाने से इनकार कर दिया लगातार घर, समाज और वकीलों के अपमानजनक प्रश्नों ने हमेशा ही इनका मजाक बनाया 

इनको यह मंजूर नहीं था कि वह अपने उस पति के लिए अपने भविष्य के सपनों को छोड़ दे जिसकी नजर इनकी संपत्ति पर थी अर्थात 1884 में ही रख्माबाई के पास करीब ₹25000 की कीमत की संपत्ति थी जो उन्हें विरासत में मिली थी पति की नजर इस पर थी 

केस की सुनवाई होने पर पहला निर्णय रख्माबाई के पक्ष में आया लेकिन रख्माबाई के पति ने फिर से अपील कर दी जहां से रख्माबाई को निर्देश मिला कि वह अपने पति के साथ रहने के लिए उनके घर जाए या तो 6 महीने की जेल की सजा काटे हैं और रख्माबाई ने पति न चुनकर जेल की सजा को चुना पर हार नहीं मानी 



अदालत के फैसले के खिलाफ रख्माबाई रानी विक्टोरिया के पास अपील कर दी रानी ने अपील को स्वीकार किया बल्कि थोड़े समय तक विचार किया और उस बाल विवाह को रद्द कर दिया और इस कानूनी लड़ाई के बाद रख्माबाई की जीत हुई 

दरअसल इस पूरे केस में इस बात पर बहस हुई थी कि एक महिला अपने पति से संबंध बनाने की सहमति दे सकती है या नहीं | क्योंकि रख्माबाई ने शारीरिक संबंध बनाने से इनकार कर दिया था और इनके पति इसे अपना अधिकार मानते हुए कोर्ट में पहुंच गए थे 

सबसे बड़ी बात यह थी कि इस केस की सुनवाई केवल एक कोर्ट में नहीं बल्कि दो से तीन कोर्ट से फैसला आए थे और सबसे बड़ी बात ये थी की सबके फैसले और तर्क अलग अलग थे



 जब यह केस चल रहा था तो समाज में भी एक बहस हो रही थी आज की तरह बस अंतर इतना ही था की आज की तरह social media नाम की आग नहीं थी जो कुछ ही सेकण्ड में पूरी दुनिया को तहस नहस कर दे  लेकिन हां हिंदू मान्यताओं परंपराओं से लेकर कानून तक को आधार बनाकर हजारों बार अख़बारों में छापा गया और द हिंदू लेडी नाम से एक अखबार के कार्यक्रम में बहस भी की गई

रख्माबाई के इस केस में कुछ लोग धर्म को भी घुसाने की कोशिश की थी की यह हिंदू धर्म के खिलाफ है , ऐसे पहले कभी नहीं हुआ , अनर्थ हो जाएगा जो भी जिसे सही लग रहा था सभी ने अपनी बात रखी लेकिन फिर भी रख्माबाई अपनी बात पर टिकी रही


इन्होने एक सभा में कहा था कि महिला का पूरा अधिकार है कि वह कब और किससे शारीरिक संबंध बनाएगी शादी से पहले हो या शादी के बाद उस पर कोई दबाव नहीं होना चाहिए इसी के ऊपर तो एक फिल्म बनी है " Pink " नाम है 

आज चाहे आप स्त्री हो या पुरुष सभी को एक बार इस रख्माबाई को दिल से याद करना ही होगा

क्या हम समाज में कुछ ऐसा तो नहीं कर रहे हैं जिससे किसी के अधिकार चाहे वह पुरुष या स्त्री हो उसका हनन तो हो रहा हो ?  क्योंकि आज हम केवल 100% दोष पुरुषों का नहीं दे सकते इसके पीछे महिलाओं का भी हाथ है और रहता भी है जैसे शादी के लिए लड़की सुंदर, सुशील ,घर चलाने वाली ,मोटी ना हो, छोटी ना हो, नौकरी ना करती हो ऐसी ही हजारो बातें आज भी पुरुषों से कहीं ज्यादा घर की महिलाएं जांच पड़ताल करती है और सबसे अधिक जब दहेज की बात आती है तो सबसे पहले महिलाओं के ही मुंह खुलते हैं



आपने एक फिल्म " शादी में जरूर आना " तो देखी होगी दहेज न मिलने पर ताना मारना आम बात है अगर आज की महिलाये जिस प्रकार अपनी बेटी को बेटी मानती है उसी प्रकार अगर अपनी बहू को भी बेटी मां ले तो मेरे हिसाब से 99% घरेलू हिंसा अपने आप खत्म हो जाएगी 

इस पूरे लेख में आपको कौन सा हिस्सा सबसे अच्छा लगा ? 

रख्माबाई के जीवन से आपको अगर कोई सीख मिली है जिसे आप भविष्य में प्रयोग कर सकते हैं ?

अगर आप महिलाएं है तो पुरुष को किस एंगल से देखती हैं और यदि आप पुरुष है तो महिलाओं के बारे में क्या सोच रखते हैं ?

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