हिंदुओं में दान ,दक्षिणा और भिक्षा का कितना महत्व ?
1.हिंदू समाज में किसी को देने के तीन प्रकार हैं- दान, दक्षिणा और भिक्षा। दक्षिणा कुछ चुकाने के लिए दी जाती है जब हम परोपकारी बनकर किसी को कुछ देते हैं तब उसे दान कहते हैं और तीसरा प्रकार भिक्षा का है अलग-अलग अर्थो में एक ही शब्द के अलग-अलग प्रयोग होते है
2.वैदिक काल में कवियों को दान दिया जाता था और बदले में ये दाता के आदर में ‘दान-स्तुति’ रचते थे इसलिए हम इसे दान नहीं बल्कि दक्षिणा कह सकते हैं
3.प्राचीन काल में राजा अपने राज्य को शक्तिशाली और समृद्ध बनाने के लिए गो-दान करते थे
4.किसी मृत व्यक्ति के जीवित संबंधी अपने दिवंगत परिजनों के लिए अच्छा भविष्य सुनिश्चित करने के लिए भी गो-दान करते थे दोनों उदाहरणों में गो-दान वास्तव में भिक्षा था, जो आध्यात्मिक पुण्य प्राप्त करने के लिए दी जाती थी
5. प्राचीन काल के सामंतवादी समाजों में ब्राह्मण, लोगों के लिए अनुष्ठान करने, मंदिर बनाकर उन्हें चलाने, यहां तक की गांव स्थापित करने और कर (tax) इकठ्ठा करने में राजाओं की मदद करने जैसी अपनी तरह-तरह की सेवाओं के लिए भुगतान मांगते थे
6. एक बार राजा हरिश्चंद्र ने विश्वामित्र ऋषि के यज्ञ में बाधा डाली इसका प्रायश्चित करने के लिए राजा ने ऋषि को अपना राज्य प्रदान कर दिया लेकिन विश्वामित्र नहीं चाहते थे कि लोग इसे दान समझें इसलिए उन्होंने राजा हरिश्चंद्र से कहा कि यज्ञ में बाधा डालने के पाप से मुक्त होने की सेवा के लिए उन्हें अतिरिक्त ‘दक्षिणा’ देनी होगी
7. भिक्षा प्राप्त करने वाला भिक्षा देने वाले का ऋणी बन जाता है, इसलिए यह ऋण आशीर्वाद देने जैसे अमूर्त तरीक़ों से चुकाता है बौद्ध और जैन धर्मों जैसे मठवासी धर्मों में भिक्षा को बहुत महत्व दिया गया
8.आज भी बौद्ध देशों में लोग भिक्षुओं को उनके कटोरों में भोजन देने के लिए सड़कों पर प्रतीक्षा करते हैं ये इसे दान देना मानते हैं, लेकिन बदले में पुण्य की अपेक्षा भी रखते है इसलिए यह दान नहीं, भिक्षा बन जाता है
9.दान देने वाला ऋण को माफ़ करता है दान प्राप्त करने वाले को ऋण नहीं चुकाना पड़ता है इसलिए दान देना दक्षिणा या भिक्षा देने से श्रेष्ठ माना जाता है
10.पुराणों में दानवीर कर्ण की कई कहानियां हैं जिन्हें सुनकर यह विचार करना स्वाभाविक है कि परोपकारी होने के बावजूद कर्ण का जीवन इतना दुःखद क्यों था ?
यह इसलिए कि हम दान को ‘भिक्षा’ समझ रहे है दान के बदले में कुछ भी अपेक्षित नहीं है इसलिए, परोपकारी होने के बावजूद कर्ण को कोई लाभ नहीं हुआ दान करने का मूल अर्थ ही यह है कि आप बदले में कुछ भी अपेक्षित न करें
यह इसलिए कि हम दान को ‘भिक्षा’ समझ रहे है दान के बदले में कुछ भी अपेक्षित नहीं है इसलिए, परोपकारी होने के बावजूद कर्ण को कोई लाभ नहीं हुआ दान करने का मूल अर्थ ही यह है कि आप बदले में कुछ भी अपेक्षित न करें
11.एक बार तीनों लोकों के स्वामी बलि ने घोषणा की कि वे उनके पास आने वाले सभी लोगों की सभी आवश्यकताएं पूरी करेंगे बलि की इस घोषणा में अहंकार निहित था इसलिए विष्णु ने वामन का रूप लेकर इनसे तीन कदम भूमि मांगी जैसे ही बलि ने हां कहा, विष्णु विशालकाय बन गए दो कदमों में तीनों लोकों को पार कर इन्होने बलि से पूछा कि तीसरा कदम कहां रखूं ?
12. तब बलि ने तीसरे कदम के लिए अपना सिर प्रदान कर विष्णु को अपना गुरु मान लिया विष्णु ने इन्हें देने के बारे में यह महत्वपूर्ण सीख दी कि विश्व में संसाधन या खाद्य पदार्थ सीमित हैं, लेकिन भूख असीम है इसलिए सभी जीव खाद्य पदार्थों के लिए संघर्ष करते हैं खाद्य पदार्थों की मात्रा बस उतनी ही होती है जितनी कि उससे जीवों की भूख मिट सके यह मानना कि कोई सभी जीवों की भूख मिटा सकता है, मूर्खता के बराबर है क्योंकि जैसे बलि विष्णु के ‘कदम’ का अनुमान नहीं लगा पाए, हम किसी मनुष्य की भूख का अनुमान नहीं लगा सकते
13. एक बार कुबेर को यह गलतफहमी हो गई कि भगवान् शिव अपने पुत्र गणेश जी को पेटभर खिला नहीं सकते, इसलिए कुबेर ने गणेश जी को अपने घर भोजन पर आमंत्रित कर लिया और उन्हें जी भरके खाने के लिए कहा गणेश जी ने इतना खाया कि कुबेर का सारा खाना ख़त्म हो गया, फिर भी वे कहते रहें कि उनका जी नहीं भरा
14. गणेश जी कुबेर को ये सीख दे रहे थे कि जीवन में भूख को मिटाने के बजाय उसके पार जाना आवश्यक है, क्योंकि जब खाने की मात्रा बढ़ती है, तब भूख भी बढ़ती है
15. इसलिए हम शिव से प्रार्थना करते हैं इनके निवास स्थल कैलाश पर्वत पर कोई भूखा नहीं होता है शिव का नाग गणेश के मूषक को नहीं खाता है और कार्तिकेय का मोर शिव के नाग को नहीं खाता है ...............
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