हिन्दू मुस्लिम एकता vs मुंशी प्रेमचंद




 

हिन्दू मुस्लिम एकता vs मुंशी प्रेमचंद

143 साल पहले 31 जुलाई को धनपत राय पैदा हुए थे जिन्हें हम प्रेमचंद के नाम से जानते है इनकी मौत 87 साल पहले हो चुकी हैएक नज़र में लग सकता है कि आठ दशक पहले जो शख्‍़स इस दुनिया से जा चुका हैउसे याद करना महज़ एक रस्‍म अदायगी ही हैक्‍योंकि जब ये लिख रहे थे तो देश गुलाम थाआज़ादी की लड़ाई लड़ी जा रही थीनया भारत बनाने के ढेरों ख्‍वाब थेउस वक्त की समाजी-सियासी ज़रूरत कुछ और ही रही होगी और चुनौतियाँ भी एकदम अलग थींइतना ज़रूर है कि इनकी लिखी बातें उस वक्त को समझने के लिए ज़रूर कारग़र होंगीमगर रचनाओं का जो भंडार ये जमा कर गएअगर उन पर नज़र दौड़ाई जाए तो वे आज भी ज़िंदगी और समाज को समझने में काफी मददगार हैइसलिए प्रेमचंद को याद करना, महज एक सालाना रस्‍म पूरा करना नहीं है आज़ादी के बाद हमने अनेक समाजी काम अधूरे छोड़े इसलिए सत्तर साल बाद भी ऐसे हजारो सवालों से हम हर रोज़ टकरा रहे हैंजो सवाल देश के सामने आज़ादी से पहले भी मौजूद थे इनके दौर में भीसाम्प्रदायिकता, नफ़रत फैलाने और देशवासियों को बाँटने का काम हो रहा था आज़ादी के आंदोलन के प्रमुख नेताओ की तरह ही प्रेमचंद का मानना था कि स्वराज के रास्‍ते में साम्‍प्रदायिक नफ़रत बहुत बड़ी बाधा हैइस सवाल के इर्द-गि‍र्द इनकी कई टिप्‍पणि‍याँ हैं 1934 में एक लेख में प्रेमचंद कहते हैं कि 'हम तो साम्‍प्रदायिकता को समाज का कोढ़ समझते हैं जो अपना छोटा सा दायरा बनाकर सभी को इससे बाहर निकाल देती हैआज भी साम्‍प्रदायिकता के नफ़रती विचार की यही कोशि‍श होती है कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी में आम भारतीयों के बीच फर्क की दीवार खड़ी की जाए और सांस्‍कृतिक रूप में जुदासाबित किया जाएप्रेमचंद तो इसे दशकों पहले बखूबी समझ रहे थे15 जनवरी 1934 को छपी इनकी एक मशहूर टिप्‍पणी है जिसमेसाम्प्रदायिकता और संस्कृति को रेखांकित करते हैं कि 'साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती हैइसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती हैइसलिए यह संस्कृति का खोल ओढ़कर आती हैहिन्दू और मुस्लिम अपनी संस्कृति को हर हाल तक सुरक्षित रखना चाहता हैदोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैंलेकिन यह भूल गए हैंकि अब न कहीं मुसलिम संस्कृति हैन कहीं हिन्दू संस्कृति और न कोई अन्य संस्कृति अब संसार में केवल एक संस्कृतिवह है आर्थ‍िक संस्कृति, संस्‍कृति को धर्म से घालमेल करने की राजनीति पुरानी रही हैजबकि संस्कृति का धर्म से कोई सम्बंध ही नहीं है जैसे आर्य संस्कृति हैईरानी संस्कृति हैअरब संस्कृति है लेकिन ईसाई संस्कृति और मुसलिम या हिन्दू संस्कृति नाम की कोई चीज ही नहीं हैप्रेमचंद जी हिन्‍दुओं और मुसलमानों को सांस्‍कृतिक रूप से अलग साबित करने के सभी तर्कों को बारी-बारी से बड़ी सहजता और तार्किक तरीके से धराशायी करते हैंहिन्दू मुस्लिम में क्या भाषा क अंतर है बिल्कुल नहीं,जैसे मुसलमान उर्दू को अपनी मिल्ली भाषा कह लेंमगर मदरासी मुसलमान के लिए उर्दू वैसी ही अपरिचित वस्तु है जैसे मदरासी हिन्दू के लिए संस्कृत, हिन्दू या मुसलमान जिस प्रान्त में रहते हैंसर्व सामान्य की भाषा बोलते हैं चाहे वह उर्दू हो या हिन्दी, बांग्ला हो या मराठी, बंगाली मुसलमान उसी तरह उर्दू नहीं बोल सकता और न ही समझ सकता है, जिस तरह बंगाली हिन्दू , दोनों एक ही भाषा बोलते हैंखाने-पीने का कितना फर्क हैआज भी साम्‍प्रदायिकता की जड़ में खान-पान एक बड़ा मुद्दा हैइनके अनुसार अगर मुसलमान माँस खाते हैं तो80% हिन्दू भी माँस खाते हैं ऊँचे दरजे के हिन्दू भी शराब पीते हैंऊँचे दरजे के मुसलमान भी, नीचे दरजे के हिन्दू भी शराब पीते हैं, नीचे दरजे के मुसलमान भी. मध्यवर्ग के हिन्दू या तो बहुत कम शराब पीते हैंया भांग के गोले चढ़ाते हैं , गाय को लेकर सवाल, हमारे बीच सदियों से रहा है इनके अनुसार मुसलमान गाय की कुर्बानी करते हैं और उनका माँस खाते हैं लेकिन हिन्दुओं में भी ऐसी जातियाँ मौजूद हैंजो गाय का माँस खाती हैं जैसे गोवा में आज भी हिन्दू गाय का मांस खाते है यहाँ तक कि मृतक माँस को भी लोग नहीं छोड़ते, ये एक अहम सवाल पूछते हैं कि 'संसार में हिन्दू ही एक जाति हैजो गो-मांस को अखाद्य या अपवित्र समझती हैतो क्या इसलिए हिन्दुओं को समस्त विश्व से धर्म-संग्राम छेड़ देना चाहिए? इस तरह के तर्क परप्रेमचंद के साथ हम आज क्‍या करतेकल्‍पना करने में कोई हर्ज नहीं हैइसलिए हम कल्‍पना करें कि आज अगर प्रेमचंद जी यह लिखते और ऐसे सवाल करते तो इनके  साथ क्‍या-क्‍या हो सकता था? क्‍या हम धैर्य के साथ इनकी बात पढ़ते-सुनते-गुनते-विचार करते, इसी तरह ये पहनावे के बारे में चर्चा करते हैंकि एक इलाके के हिन्‍दू और मुसलमान स्‍त्री-पुरुष लगभग एक जैसे कपड़े पहनते हैंबंगाल में जाइए जहा हिन्दू और मुसलमान स्त्रियाँ दोनों ही साड़ी पहनती हैंसंगीत और चित्रकला भी संस्कृति का एक अंग हैलेकिन यहाँ भी हम कोई सांस्कृतिक भेद नहीं पातेवही राग-रागनियाँ दोनों गाते हैं और मुग़ल काल की चित्रकला से भी हम परिचित हैंसांस्‍कृतिक रूप से हिन्‍दुओं और मुसलमानों के बीच फर्क के तर्क पर सवाल करते हैं की हमारी समझ में नहीं आता कि वह कौन सी संस्कृति हैजिसकी रक्षा के लिए साम्प्रदायिकता इतना जोर बाँध रही है'वास्तव में संस्कृति की पुकार केवल ढोंग और पाखण्ड है और इसके जन्मदाता भी वही लोग हैं जो साम्प्रदायिकता की शीतल छाया में बैठे अपना मतलब निकालते है यह सीधे-सादे लोगो कोसाम्प्रदायिकता की ओर घसीट लाने का केवल एक मंत्र है और कुछ नहीं,साम्‍प्रदायिक संगठनों को जनता के सुख-दुख से कोई मतलब नहीं होता है इनके पास ऐसा कोई सामाजिक या राजनीतिक कार्यक्रम नहीं होता जिसे राष्ट्र के सामने रख सकेंप्रेमचंद के मुताबिकयह युग साम्प्रदायिकताका युग नहीं है बल्कि आर्थ‍िक युग का है और आज वही नीति सफल होगी जिससे जनता अपनी आर्थ‍िक समस्याओं को हल कर सके जिससे यह अंधविश्वास, धर्म के नाम पर किया गया पाखण्डमिटाई जा सकेउस संस्कृति में था ही क्या, जिसकी ये लोग रक्षा करेंगेइन्हें तो आज अपने जीवन की रक्षा की ज्यादा चिन्ता हैराष्‍ट्र का उद्धार कैसे होगा1932में इसी बात को कुछ यों कहते हैंकि राष्‍ट्र के सामने जो समस्‍याएं हैंउसका सम्‍बंध हिन्‍दू, मुस्लिम सिक्ख, ईसाई सभी से हैबेकारी से सभी दुखी हैं दरिद्रता सभी का गला दबाये हुए है हरदिन  नयी-नयी बीमारियाँ पैदा होती जा रही हैंजिसका वार सभी सम्‍प्रदायों पर समान रूप से होता हैकर्ज़ के बोझ में सभी दबे है ऐसी कोई सामाजिक, आर्थ‍िकया राजनीतिक दुरवस्‍था नहीं हैजिससे राष्‍ट्र के सभी अंग पीडि़त न हों दरिद्रता, अशिक्षा, बेकारी, हिन्‍दू और मुसलमान का विचार नहीं करती हमारे किसानों के सामने जो बाधाएँ हैं, उनसे हिन्‍दू और मुसलमान दोनों पीडि़त हैंराष्‍ट्र का उद्धार इन समस्‍याओं के हल करने से होगाहिन्‍दू मुस्लिम एकतासाम्‍प्रदायिकता का जवाब एकता ही होगा मगर कैसे? 1931 में ये लिखते हैंकि दिलों में गुबार भरा हुआ है, फिर मेल कैसे हो मैली चीज़ पर कोई रंग नहीं चढ़ सकता हम ग़लत इतिहास पढ़-पढ़कर एक दूसरे के प्रति तरह-तरह की ग़लतफ़हमियां दिल में भरे हुए हैंऔर उन्‍हें किसी तरह दिल से नहीं निकालना चाहतेमानो उन्‍हीं पर हमारे जीवन का आधार होआज साहित्‍यकार, कलाकार और बुद्धिजीवी सामाजिक मसलों पर बोल या लिख रहे हैं तो इन्हें ढेरों आलोचनाएँ झेलनी पड़ रही हैंऔर तो और इन्हें राष्‍ट्रद्रोही तक के दायरे में डाल दिया जा रहा हैइस तरह से प्रेमचंद जी अपने समय के हर विषय से टकराते रहेइसीलिए ये हमारे बीच आज भी ज़िंदा हैं और आगे भी जिन्दा रहेंगे

 

 

2 टिप्पणियाँ

  1. sach baat hai kyoki munshi prem chand ki kahaniya padhne par aisa lagta hai ki wo ghtnaye aaj hi ghatit ho rahi hai chahe ho pus ki raat ho ya gaban ya godan ho esliye premchand ji hamesha hm logo ko dilo me rahenge ,,,,,,,jai hindi jair bhart

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