भारत देश की सबसे बड़ी समस्या
पिछले दिनों देश की राजधानी के उत्तर - पूर्वी इलाके में जिस तरह से भीषण साम्प्रदायिक हिंसा से जल उठे और मात्र तीन दिनों में 48 लोगों की जान ले ली गई वह दिल दहला देने वाली है जिस धर्म और मंदिर - मस्जिद के नाम पर लोग लड़ रहे थे वह अब उन्हें बचाने क्यों नहीं आये ? आखिर यह धर्म की कैसी रक्षा है जो एक दूसरे की जान लेने पर उतारू हो जाते हैं ?
दंगा प्रभावित इलाकों से जितनी भी खबरें आई है उसमे लगभग एक जैसी बातें कही गई है कि यहां तो कभी ऐसा हुआ ही नहीं था सब एक दूसरे से मिलकर प्यार से रहते आए हैं हिंदू ने मुसलमान को और मुसलमान ने हिंदू के लोगों को हमेशा से बचाते रहे
गौर करने वाली बात तो ये है कि दशकों का प्यार एकाएक इतनी घृणा में कैसे तब्दील हो जाता है घृणा एक दिन में नहीं जन्म लेती है यह सबसे पहले हमारे मन में जन्म लेती है और मौका पाते ही बाहर निकलती है समाज में भाई-भाई के नारे इसी घृणा को छुपाने के लिए ही लगाए जाते हैं वरना तो जो भाई-भाई है उन्हें यह बार-बार भाई भाई करने की और कोई सबूत देने की जरूरत नहीं पड़ती है इस देश में इस समाज में |
सवाल ये है कि जब इतना भाईचारा था तो मारा ही किसने ? जिनसे भी पूछा गया दंगाई कौन थे तो लगभग सभी ने एक ही बात कही कि वे दंगाइयों को नहीं पहचानते और दंगाई बाहर से आए थे अगर कुछ समय के लिए मान भी लिया जाए कि यह दंगाई बाहर से थे तो उनको इतनी सटीक जानकारी कैसे हुई की किस घर में मुस्लिम और किस में हिंदू परिवार रहता है ? क्योंकि हमला जो भी हुआ है वह बहुत ही सुनियोजित तरीके से किया गया और कराया गया
सच तो यह है कि हिंसा प्रभावित इलाके में लोग दंगाइयों को पहचानते भी होंगे लेकिन वह बताना नहीं चाहते , बता देंगे दंगाइयों की पहचान उजागर कर देंगे तो पूछने वाले तो अपने-अपने रास्ते चले जाएंगे क्या पता दंगाई वापस लौटकर दोबारा आ धमके ?
इसके अलावा अगर दंगाइयों का कोई नाम ले भी लेता है तो पुलिस के चक्कर लगाएगा कौन इन गरीब लोगों के पास न तो उतना समय है और न हीं उतना संसाधन की वो सारा काम धाम छोड़कर कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाए
क्या हमें फिर से सांप्रदायिकता की परिभाषा पर विचार नहीं करना चाहिए ? लोगों को यह बात समझनी ही होगी कि अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता , बहुसंख्यक सांप्रदायिकता से कम खतरनाक होती है के मुकाबले इस बात पर जोर क्यों नहीं दिया जाना चाहिए कि हर तरह की सांप्रदायिकता खतरनाक ही होती है एक धर्म की सांप्रदायिकता दूसरे धर्म की सांप्रदायिकता को हर हाल में बढ़ाती है इसलिए दूसरे की तरफ उंगली उठाने से पहले अपनी अपनी नफरत से लड़ना चाहिए
अपने-अपने धर्म के दंगाइयों को बचाने की बजाय उन्हें पुलिस को तुरंत सौपना चाहिए लेकिन कौन करेगा ? कोई आगे आएगा ? कोई नहीं सब तो दूध के धुले हैं |
उनका सामाजिक बहिष्कार भी किया जाना चाहिए बुराई और बुरे लोगों का साथ देना भी अपराध को बढ़ावा देना ही है क्योंकि मरे किसी भी धर्म समुदाय के अंततः इंसान ही मरता है हर बार सबसे अधिक नुकसान उनके परिवारों को भुगतना पड़ता है आखिर इन सब का दोष ही क्या था जो मारे गए किसी के पास है कोई जवाब ?
दरअसल नाम तो धर्म की रक्षा का लिया जाता है हम हिंदू हम मुस्लिम है लेकिन मार-काट हिंसा अपनी अपनी धर्म की ताकत दिखाने के लिए होती है दिल्ली दंगों में जिस तरह आम लोग मारे गए हैं उसका सबक समाज और देश को यही मिला है कि ऊपर से भाई-भाई और हम सब एक है के नारे लगाने के बजाय हम अपने मन में बैठी नफरत को पहले दूर करें
अफसोस यह है कि राजनीतिक दलों के वोटो का गुणा - भाग समाज में फैली इसी हिंसा इसी ध्रुवीकरण से ही तो तय होता है वोटो के लिए पहले नफरत के बीज बोया जाता है और फिर पलटकर भाई-भाई की बातें की जाती है नेताओं को इस तरह का अभिनय करना झूठ बोलना बखूबी आता है
क्या लोकतंत्र का सिर्फ अर्थ लड़ाई झगड़ा और मार काट ही रह गया है अब ? सभी राजनीतिक पार्टिया जाति , धर्म को न मानने की कसमे तो खाती है लेकिन छोटे से छोटे चुनाव के वक्त उम्मीदवारो का चयन इसी धर्म के आधार पर ही करती हैं और प्रचार के दौरान जो अभी दिल्ली वासियों ने विधानसभा चुनाव में देखा इसने पूरे देश की जनता की आंखें खोल दी लेकिन फिर भी उन्हीं के बहकावे में आकर क्यो जानवरों से बदतर कार्य करने को मजबूर हो जाते है ?
आपने कभी ध्यान से सोचा कि जिन लोगों ने दंगा को भड़काया क्या उनका कोई नुकसान हुआ सभी का जवाब होगा नहीं साहब उनके घर का तो कोई नहीं मरा |
लोगों को उकसाने वाले और उनको सड़कों पर उतारने वाले दोनों ही धर्म के कोई नेता और बुद्धजीवी किसी की सुरक्षा करते नजर नहीं आए टीवी चैनल हो या सोशल मीडिया से लगातार नफरत फैलाया जा रहा अक्सर एक पक्षीय बात की जाती है कोई हिंदू को सही बता रहा है तो कोई मुस्लिम को अगर सभी राजा हरिश्चंद्र है तो इस दंगो को किया किसने ? और हुआ ही क्यों जब हर बार की तरह यही होना होता है
इस दंगे ने तो यह पूरी तरह से साबित कर दिया और कहा भी गया है कि " मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर से रहना " ये पंक्तिया केवल कहने और सुनने में अच्छे लगते है अब तो इसे बदलकर ऐसे भी कहा जा सकता है और किसी को कोई आपत्ति भी नहीं होनी चाहिए कि " यह मजहब ही है जो एक दुसरे से नफरत करना सिखाता है " ........






